Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 167
________________ मानता है कि 'हेयोपादेय दर्शक ज्ञान है, कर्म मल को धोने हेतु जल समान तप है, आते कर्मों को रोकने वाला संयम है' ऐसे दृढ़भाव से तप द्वारा पूर्व के पाप कर्मों का नाश करता है। मन-वचन-काया को संवर करने वाला अर्थात् तीन गुप्तियों से गुप्त एवं पांच समितियों से युक्त है। वह भिक्षु है ||७|| आहार शुद्धि: तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइम- साइमं लभित्ता । होही अट्ठो सुट परे वा, तं न निहे न निहावर जे स भिक्खु ||८|| तहेव असणं पाणगं वा, विविधं खाइम - साइमं लभित्ता । छंदिय साहम्मिआण भुंजे, भोच्चा सज्झाय-रए य जे स भिक्खू ॥९॥ सं.छा.ः तथैव, अशनं पानकं वा, विविधं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा । · भविष्यति, अर्थः श्वः परश्वो वा, तन्न निधत्ते न निधापयति यः स भिक्षुः ॥ ८ ॥ तथैव, अशनं पानकं वा, विविधं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा । छन्दित्वा साधर्मिकान् भुङ्क्ते, भुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च यः स भिक्षुः ॥ ९ ॥ भावार्थ : और विविध प्रकारे के, चारों प्रकार के निर्दोष आहार को प्राप्तकर, यह मुझे कल-परसों काम आयगा ऐसा सोचकर मुनि किसी प्रकार का आहार रातवासी (सन्निधि) न रखें, न रखावे। वह भिक्षु है ।। ८ ।। उसी प्रकार विविध चारों प्रकार के आहार को प्राप्तकर स्वधर्मी मुनि भगवंतों को निमंत्रितकर आहार करता है और करने के बाद स्वाध्याय ध्यान में रहता है। वह भिक्षु है ॥ ९ ॥ योग शुद्धि : न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा, न य कुप्पे निहुइदिए पसंते। संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ||१०|| सं.छा.ः न च वैग्रहिकां कथां कथयति, न च कुप्यति निभृतेन्द्रियः प्रशान्तः। संयमे ध्रुवं योगेन युक्तः, उपशान्तोऽविहेडको यः स भिक्षुः ||१०|| भावार्थ ः जो मुनि कलहकारिणी कथा नहीं कहता, सद्वाद कथा में दूसरों पर कोप नहीं करता, इंद्रियां शांत रखता है, रागादि से रहित, विशेष प्रकार से शांत रहता है, संयम में निरंतर तीनों योगों को प्रवृत्त रखता है, स्थिर रखता है, उपशांत रहता है। एवं उचित कार्य का अनादर नहीं करता (किसी का तिरस्कार नहीं करता) वह भिक्षु है ॥ १० ॥ परिसह सहन : जो सहइ हु गाम - कण्टर, अठोस पहार - तज्जणाओ य भय-भैरव-सद्द - सप्पहासे, सम-सुह- दुक्ख सहे य जे स भिक्खूं ||११|| पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, नो भीयए भय भेरवाई दिस्स | श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 164

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184