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अन्यं वा गृहन्तमपि, नानुजानन्ति संयताः ।।१५।। भावार्थ : मालिक से याचना किये बिना सचित्त या अचित्त, अल्प हो या अधिक, दांत साफ करने की सली तक भी स्वयं ले नहीं दूसरों से मंगवाए नहीं, लेनेवालों की अनुमोदना न करें।
सूत्रकार श्री ने दांत साफ करने की सली जैसी वस्तु बिना याचना किये लेने का निषेधकर यह स्पष्ट किया है कि साध्वाचार में अदत्त अग्रहण का कितना महत्त्व है? तृतीय संयम स्थान ।।१४-१५।। चतुर्थ संयम स्थान अब्रह्म का त्याग' :
अबंभचरिअं घोरं, पमायं दुरहिछि नायरंति मुणी लोए, भेआययणवज्जिणो ||१६|| मूलमेयमहम्मस्स, महादोसासमुस्सयं। . .
तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं ||१७|| सं.छा.: अब्रह्मचर्यं घोरं, प्रमादं दुराश्रयम्।
नाचरन्ति मुनयो लोके, भेदायतनवर्जिनः ।।१६।। मूलमेतदधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्रयम्।
तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति वै ।।१७।। भावार्थ : चारित्र नाश हो ऐसे स्थान के त्यागी, चारित्राचार पालक पापभीरू, मुनि, रौद्र अनुष्ठान के हेतुभूत, सर्व प्रमाद के मूल रूप में और अनंत संसारवृर्द्धक होने से एवं आगमज्ञ भव्यात्माओं के द्वारा अनाचरित ऐसे अब्रह्मचर्य का आचरण नहीं करते। क्योंकि भगवंत ने इसे 'अधर्म का मूल एवं महादोषों का ढेर' जैसा कहा है अर्थात् अब्रह्मचर्य का सेवन अधर्म की जड़ है इससे अनेक प्रकार के पापाचरण होते हैं इस कारण से निग्रंथ महापुरुष मैथुन संसर्ग का त्याग करते हैं। इति चतुर्थ संयम स्थान ॥१६-१७|| पंचम स्थान 'अपरिग्रह' :
बिडमुब्भेइमं लोणं, तिल्ल सप्पिं च फाणि न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ||१८|| लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्जयरामवि। .. जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइए न से||१९|| जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं| .. तंपि संजमलज्जट्ठा, धारंति परिहरंति अ ||२०|| न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। ... मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअ वुत्तं महेसिणा ||२१|| ..
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 94