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न करे, न चले, बैठने का स्थान नीचे रखना एवं पाट आदि आसन नीचे रखना, नीचे पैरों में मस्तक नमाकर वंदन करना और झुककर हाथ जोड़कर अंजलीकर नमस्कार करना।।१७।।
संघट्टइत्ता काटणं, तहा उवहिणामवि।
खमेह अवराहं मे, वइज्ज न पुण ति अ ||१८|| सं.छा.ः सङ्घट्य कायेन, तथोपधिनाऽपि च।
क्षमस्वापराधं मे, वदेच्च न पुनरिति ।।१८।। भावार्थ : अनजाने में आचार्यादि सद्गुरु का अविनय हुआ हो तो शिष्य आचार्य महाराज के पास जाकर स्वहस्त से या मस्तक से गुरु चरण को स्पर्शकर या पास में न जा सके तो उपधि आदि पर हाथ स्थापन कर कहे : हे सद्गुरु भगवंत यह मेरा अपराध क्षमा करें! फिर से ऐसा अपराध नहीं करूंगा ॥१८॥
(सद्गुरु का काया से स्पर्श हुआ हो या उपधि आदि उपकरण से कोई अविनय आशातना हुई हो तो उसकी क्षमा याचना करना, पुनः ऐसा अपराध नहीं करूंगा ऐसा कहना)
दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहइ रहं।।
एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्ती पकुव्वई ।।१९।। ... सं.छा.: दुर्गौरिव प्रतोदेन, चोदितो वहति रथम्। ... एवं दुर्बुद्धिः कृत्यानां, प्रोक्तः प्रोक्तः प्रकरोति ।।१९।। भावार्थ : दुष्ट बैल चाबुकादि से प्रेरित होने पर रथवहन करता है वैसे दुर्बुद्धि शिष्य बार-बार प्रेरणा करने पर सद्गुरु का कार्य करता है।।१९।।।
आलवन्ते लवन्ते वा, न निसिज्जाइ पडिस्सुणे। · मुत्तूणं आसणं धीरो, सस्स्साए पडिस्सुणे। . कालं छन्दोवयारं च, पडिलेहिताण हेउहिं।
तेणं तेणं उवाटणं, तं तं संपडिवायए ||२०|| सं.छा. आलप लपन् वा, न निषद्यायां प्रतिशृणुयात्।
मुक्त्वा चासनं धीरः, शुश्रूषया प्रतिशृणुयात्।। कालं छन्दोपचारं च, प्रत्युपेक्ष्य च हेतुभिः।
तेन तेनोपायेन, तत्तत्सम्प्रतिपादयेत् ।।२०।। भावार्थः सद्गुरु शिष्य को एक बार या बार-बार बुलावे तो शिष्य आसनस्थ उत्तर न दे पर स्व आसन छोड़कर, सद्गुरु के पास आकर, हाथ जोड़कर उत्तर दे। शिष्य काल, गुरु इच्छा, सेवा के भेद प्रभेद को समझकर, उस-उस उपाय से उन वस्तुओं, पदार्थों का संपादन करें। सद्गुरु की इच्छानुसार प्रत्येक कार्य करें ।।२०।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 151