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जो मुनि सत्य दिखनेवाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है वह मुनि पाप से लिप्त होता है। तो जो पुरुष असत्य बोलता है उसका क्या कहना ? यानि पुरुष वेषधारी स्त्री को पुरुष कहने वाला पाप बांधता है तो सर्वथा असत्य बोलनेवाला पाप से लिप्त होता ही है ।।५।।
काल संबंधी शंकित भाषा का त्याग :
तुम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ । अहं वाणं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ ॥ ६ ॥ एवमाइ उ जा भासा, एसकालंमि संकिआ । संपयाइ अमट्ठे वा, तंपि धीरो विवज्जर || ७ || अईमि अ कालंमि, पच्चुप्पण्णमणागर । जमट्ठे तु न जाणिज्जा, एवमेअं ति नो वए ||८|| अईअंमि अ कालंमि, पच्चुप्पन्नमणागए।
संका भवे तंतु, एवमेअं ति नो वए ||९||
सं.छा.ः तस्माद् गमिष्यामः वक्ष्यामः, अमुकं वा नो भविष्यति । अहं वेदं करिष्यामि, एष वा वै करिष्यति ।।६।। एवमाद्यातु या भाषा, एष्यत्काले शङ्किता । साम्प्रतातीतार्थयोर्वा, तामपि धीरो विवर्जयेद् ||७|| अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नेऽनागते ।
यमर्थं तु न जानीयाद्, एवमेतदिति न ब्रूयात् ॥८॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नेऽनागते ।
यत्र शङ्का भवेत्तं तु, एवमेतदिति नः ब्रूयात् ।।९।। भावार्थ ः असत्य होते हुए सत्य वस्तु के स्वरूप को प्राप्त पदार्थ के विषय में बोलने से पाप कर्म का बंध होता है तो हम जायेंगे, 'कहेंगे' हमारा वह कार्य हो जायेगा, मैं यह कार्य करूंगा या यह हमारा कार्य करेगा इत्यादि भविष्यकाल संबंधी भाषा उसी प्रकार वर्तमान एवं भूतकाल संबंधी भाषा बुद्धिमान साधु को नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि कहे अनुसार कार्य न हुआ तो असत्य के दोष के साथ जन समुदाय में लघुता आदि होती
है।
अतीत, वर्तमान एवं भविष्य काल संबंधी जिस वस्तु के स्वरूप को, जिस कार्य के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से न जाना है उसके संबंध में यह ऐसा ही है, यह ऐसा ही था इस प्रकार न बोले ।।६-८ ।।
अतीत, भविष्य, एवं वर्तमान काल संबंधी जहाँ शंका है उसके विषय में ऐसा ही है ऐसा न कहें ॥ ९ ॥
श्री दशवैकालिकं सूत्रम् - 110