Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 144
________________ दासत्व (उवट्ठिआ) पाये हुए ।।१०।। (पायवा) वृक्ष (जलसित्ता) जल से सिंचित ।।१२।। (नेउणियाणि) निपुणता ||१३।। (ललिइंदिया) गर्भश्रीमंत ।।१४।। (निद्देसवत्तिणो) आज्ञाधिन ।।१५।। (सुयग्गाहि) श्रुतज्ञानग्राही (अणंत हिय कामए) मोक्षकामी (नाइवत्तए) उल्लंघन न करे ।।१६।। (उवहिणामवि) उपधि पर ।।१८।। (दुग्गओ) अड़ियल वृषभ (पओएणं) चाबुक से (वुत्तोवुत्तो) बार-बार कहने से ।।१९।। (पडिस्सुणे) उत्तर देना (छंदोवयार) गुरु इच्छा को (संपडिवायए) सम्प्रतिपादन करना, पूर्ण करना ।।२०।। (विवत्ती) विनाश (अभिगच्छइ) पाता है ।।२१।। (साहस) अकृत्य करने में तत्पर (अकोविए) न जाननेवाला (हीण पेसणे) गुरु आज्ञा को न माननेवाला ।।२२।। (ओहं) संसार समुद्र को ।।२३।। तृतीय उद्देशः - (सुस्समाणो) सेवा करते हुए (आलोइयं) नजर, दृष्टि (इंगिवयं) इंगित (बाहर के आकार का परिवर्तन) (छन्द) आचार्य की इच्छानुसार ।।१।। (परिगिज्झ) ग्रहण करे (जहोवइ8) जैसा कहा वैसा ।।२।। (नियत्तणे) अधिक गुणी को नमस्कार करता हुआ (ओवायवं) वंदन करनेवाला (वक्ककरो) आज्ञा माननेवाला।।३।। (अन्नायउंछं) अज्ञात घरों से (जवणट्ठया) निर्वाह अर्थे (समुयाणं) योग्य आहार (परिदेवएज्जा) निंदा करना ।।४।। (पाहन्न) प्रधान ।।५।। (सक्का) शक्य (सहेडं) सहने हेतु (आसाइ) आशा से (अओमया) लोहमय (उच्छहया) उत्साह से (वइमए) कठोर, परुषवचन (कण्णसरे) कान में प्रवेश करते ऐसे ।।६।। (सुउद्धरा) सुखपूर्वक निकाले जा सके॥७॥ (समावयन्ता) सामने आते हुए (जणन्ति) उत्पन्न करते हैं (किच्चा) जानकर (परमग्गसूरे) महाशूरवीर ।।८।। (परम्मुहस्स) पीछे (पडिणीय) दुःखद (ओहारिणिं) निश्चयरूप ॥९॥ (अपफुहए) इन्द्रजालादि क्रिया से दूर (भावियप्पा) स्व प्रशंसक ।।१०।। (अगुणेहिंऽसाहू) अगुणों से अस्वाधु (अप्पगं) आत्मा को ।।११।। (हीलए) एक बार निंदा करे (खिंसएज्जा) बार-बार निंदा करे ।।१२।। (माणिया) सन्मानित (कन्नं व) कन्या के जैसे (उत्तेण-जत्तेण) यत्न से (माणरिहे) मान देने योग्य ।।१३।। (चरे) आदरे, पाले, स्वीकार करे।।१४।। (पडियरिय) सेवाकर (धुणिय) खपाकर (अभिगमकुसले) मेहमान मुनियों की वैयावच्च में कुशल (भासुरं) देदीप्यमान (वइ) जाता है ।।१५।। चतुर्थ उद्देशः -(अभिरामयन्ति) जोड़ता है ।।२।। (अणुसासिज्जन्तो) अनुशासित (वेयमाराहइ) श्रुत ज्ञान की आराधना करे (अत्तसम्पग्गहिए) आत्म प्रशंसक (एत्थ) यह ॥३।। (पेहेइ) प्रार्थना करे (आययट्ठिए) मोक्षार्थि साधु ।।४।। (अज्झाइयव्वं) पठन योग्य ।।५।। (आरहन्तेहिं हेउहिं) अरिहन्त कथित हेतु (भाव सन्धए) आत्मा को मोक्ष के पास ले जानेवाला ।।६॥ (अभिगम) जानकर (विउलहिअं) महान् हितकारी (इत्थंत्थं) नरकादि व्यवहार के बीजरूप वर्ण संस्थानादि ।।७।। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 141

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