Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 143
________________ ९ विनयसमाधि नामकं नवमं अध्ययनम् संबंध - आठवें अध्ययन में आचार साध्वाचार का वर्णन किया, प्ररूपणा की। आचार पालन में विनय गुण का मुख्य, प्रधान स्थान है। विनयहीन आत्मा का आचार पालन, बिना जड़ के वृक्ष जैसा है। आगमों में मूल शब्द का प्रयोग विनयधर्म के साथ . ही हुआ है। 'विणय मूलो धम्मो' धर्म का मूल विनय है। धर्म के मूल स्वरूप विनय की व्याख्या नवमें अध्ययन में दर्शायी है। विनयी आत्मा ही आचार पालन के द्वारा जगत विश्व में पूजनीय होता है। अतः श्री शय्यंभवसरीश्वरजी म.सा. ने नौवे अध्ययन में विनय का स्वरूप दर्शाया है। विनयसमाधि नवम अध्ययन प्रथम उद्देशः के उपयोगी शब्दार्थ - (अभूईभावो) अज्ञानभाव (कीअस्स) बांस के फल ॥१।। (विइत्ता) जानकर (डहरे) छोटी आयुवाले (पडिवज्जमाणा) स्वीकार करके ।।२।। (पगइइ) स्वभाव से (सिहिरिव) अग्नि जैसा (भास) भस्म ।।३।। (निअच्छई) प्राप्त करता है (जाइपह) जाति पंथ ।।४।। (आसीविसो) दाढ में विषवाला सर्प (सुरुद्वो) विशेष क्रोधित ।।५।। (जलिअं) जलती (अवंक्कमिज्जा) खड़ा रहता है या लांघता है (कोवइज्जा) क्रोधित करना (एसोवमा) यह उपमा ।।६।। (डहेज्जा) जलाना (हालहलं) हलाहल नामक विष ।।७।। (रमेज्जा) रहना, वर्तना : (पसायाभिमुहो) प्रसन्न करवाने में तत्पर ॥१०॥ (सत्तिअग्गे) शक्ति की धार पर ।।८।। (जहाहिअग्गी) जैसे होम करनेवाला ब्राह्मण (नाणाहुइ) अनेक प्रकार की आहुति से (उवचिट्ठएज्जा) सेवे, (मंतपयाभिसित्त) मंत्र पदों से अभिषिक्त (अणंत नाणोवगओवि) अनंत ज्ञान युक्त भी ।।११।। (जस्सन्तिए) जिनके पास ।।१२।। (निसंत) रात्रि का अंतिम समय (तवणच्चिमाली) प्रकाशमान सूर्य (पभासाई) प्रकाश करता है, (विरायइ) शोभित है ।।१३।। (कोमुई) कार्तिक पूर्णिमा के रात का चंद्र प्रकाश (परिवुडप्पा) परिवृत्त (खे) आकाश में (अब्भमुक्के) बादलों से मुक्त ।।१५।। (महागरा) महान् खान जैसे (महेसि) मोक्ष की बड़ी इच्छावाले (संपाविउकामे) मोक्ष प्राप्ति की इच्छा युक्त ।।१६।। (आराहइत्ताण) आराधन कर ।।१७।। द्वितीय उद्देशः के उपयोगी शब्दार्थ - (समुवेन्ति) सम्यक् उत्पन्न होता है (विरुहन्ति) विशेषकर उत्पन्न होता है ।।१।। (सिग्घं) प्रशंसा योग्य (चण्डे) क्रोधी (मिए) अजाण (थद्धे) स्तब्ध, अहंकारी (नियडी) कपटी मायावी (सढे) सठ (वुज्झइ) प्रवाहित होता है (सोयगय) प्रवाहगत ।।३।। (उवाएणं) उपाय से (चोइओ) प्रेरित (इज्जन्ति) आती ऐसी (पडिसेहए) लौटा दे, निषेध करे ।।४।। (उववज्झा) राजा आदि लोगों के (एहन्ता) भोगते ऐसे ।।५।। (छाया) चाबुक के मार से व्रण युक्त देहवाला ।।६।। (परिजुण्णा) दुर्बल बना हुआ (कलुणा) दया उत्पन्न हो वैसा (विवन्नछन्दा) पराधीन रहे हुए (असब्भ) असभ्य (खुप्पिवासा परिगया) क्षुधा प्यास से पीड़ित ।।८।। (गुज्झग्गा) भवनपति (आभिओगं) श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 140

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