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इमं गिण्ह इमं मुंच, पणीयं नो विआगरे ।।४५|| सं.छा.ः सुक्रीतं वा सुविक्रीतं, अक्रेयं क्रेयमेव वा।
इदं गृहाणेदं मुञ्च, पणितं नो व्यागृणीयात् ।।४५।। भावार्थ : क्रय-विक्रय के विषय में अच्छा खरीदा/अच्छा बेचा/ यह खरीदने योग्य नहीं है। यह खरीदने योग्य है। यह ले लो। यह बेच दो। इस प्रकार साधु न बोलें क्योंकि ऐसे वक्तव्य से अप्रीति अधिकरणादि दोष लगते हैं ।।४५।।
अप्पग्घे वा महग्घे वा, कए वा विकट वि वा।
पणिअढे समुप्पन्ने, अणवज्ज विआगरे ||४६|| सं.छा.ः अल्पार्थे वा महार्ये वा, क्रये वा विक्रयेऽपि वा।
पणितार्थे समुत्पन्ने, अनवद्यं व्यागृणीयात् ।।४६।। भावार्थ : अल्प मूल्य वाले, बहुमूल्य वाले पदार्थ के क्रय-विक्रय के विषय में गृहस्थ के प्रश्न में साधुनिष्पाप, निर्दोष उत्तर देकि "इस क्रय-विक्रय के विषय में साधुओं का संबंध न होने से हमें बोलने का अधिकार नहीं है।" ।।४६।। असंयत को क्या न कहें? .
तहेवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा।
सय चिट्ठ वयाहि ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं ।।४७|| सं.छा. तथैवासंयतं धीरः, आस्स्व एहि कुरु वा। ... शेष्व तिष्ठ व्रजेति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ।।४७।।
भावार्थ : धीर एवं बुद्धिमान् साधुओं को गृहस्थ से बैठो, आओ, यह कार्य करो, सो ज़ाओ खड़े रहो, जाओ इत्यादि नहीं कहना। ये सभी जीवोपघात के कारण हैं ।।४७।। 'साधु' किसे न कहें? किसे कहें?
बहवे इमे असाहू, लोए वच्चंति साहुणो। . न लवे असाहूं साहुत्ति, साहुं साहुत्ति आलवे ||४८|| . नाण-दसण-संपन्नं, संजमे अ तवे रयं।
एवं गुण-समाउत्तं, संजय साहुमालवे ।।४९|| सं.छा.: बहव एतेऽसाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः।
नालपेदसाधुंसाधुमिति, साधुंसाधुमित्यालपेत् ॥४८॥ . ज्ञानदर्शनसम्पन्नं, संयमे च तपसि रतम्।
एवंगुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत् ।।४९।। भावार्थ ः जन समुदाय रूप लोक में बहुत सारे असाधु साधु के नाम से बुलाये जाते हैं (जो मोक्षमार्ग की साधना न करने से असाधु हैं) ऐसे असाधुको मुनि, साधुन कहें। पर
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 119