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निग्गंथाऽपडिलेहार, बुद्धवृत्तमहिठ्ठगा ||५५|| गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा।
आसंदी पलिअंको अ, एअमटुं विवज्जिआ ||५६|| सं.छा.ः आसन्दीपर्यङ्कयोः, मञ्चाशालकयोश्च वा।
अनाचरितमार्याणां, आसितुं स्वप्तुं वा।।५४।। नासन्दीपर्यङ्कयोः, न निषद्यायां न पीठके। निर्ग्रन्था अप्रत्युपेक्ष्य, बुद्धोक्ताधिष्ठातारः ।।५।। गम्भीरविजया एते, प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीयाः।
आसन्दी पर्यङ्कश्च, एतदर्थं विवर्जिताः ।।५६।। भावार्थ ः मंचिका, पलंग, मंच, आरामकुर्सी आदि आसन पर बैठना और सोना श्रमणों के लिए अनाचरित है। क्योंकि उसमें छिद्र होने से जीव हिंसा होना संभव है।
जिनाज्ञाअनुसार आचरण कर्ता मुनि-आचार्यादिको राजदरबार आदि स्थानों में जाना पड़े, बैठना पड़े.तो अपवाद मार्ग से आसन, पलंग, कुर्सी, बाजोट आदि को पूंजकर पडिलेहणकर बैठे; बिना पडिलेहण उसका उपयोग न करें।
मंचिका, पलंग, आरामकुर्सी आदि गम्भीर छिद्रवाले, अप्रकाश आश्रययुक्त होने से, उनमें रहे हुए सूक्ष्मजीव, दृष्टिगोचर न होने से, उस पर बैठने से, जीव विराधना होती है अतः ऐसे आसनों का त्याग करना। सारांश है दुष्प्रतिलेखन वाले आसन आदि का उपयोग न करना यह पंद्रहवाँ संयम स्थान है ।।५४-५६।। सोलहवां स्थान 'गृहान्तर निषद्या वर्जन' :
गोअरग्गपविठ्ठस्स, निन्सिज्जा जस्स कप्पड़। इमेरिसमणायारं, आवज्जइ अबोहिअं |५७|| विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो। वणीमगपडिग्घाओ, पडिकोहो अगारिण||५८।। अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणं| कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जर ||५९|| तिण्हमन्लयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पड़।
जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो ||६०।। । सं.छा.: गोचराग्रप्रविष्टस्य, निषद्या यस्य कल्पते।
एवमीदृशमनाचारं, आपद्यते अबोधिकम् ।।५७।। विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्य, प्राणिनां च वधे वधः। वनीपकप्रतिघातः, प्रतिक्रोधश्चागारिणाम्।।५८।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 103