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सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे।
अवि अप्पणोऽवि देहंमि, नायरंति ममाइयं ||२२|| सं.छा.: बिंडमुद्वेद्यं लवणं, तैलं सर्पिश्च फाणितम् ।
न ते सन्निधिमिच्छन्ति, ज्ञातपुत्रवचोरताः ।।१८।। लोभस्यैषोऽनुस्पर्शः, मन्यन्तेऽन्यतरामपि । यःस्यात् सन्निधिं कामयते, गृही प्रव्रजितो नासौ ॥ १९ ॥ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादपुञ्छनम्। तदपि संयमलज्जार्थं, धारयन्ति परिहरन्ति ॥ २० नासौ परिग्रह उक्तो, ज्ञातपुत्रेण तायिना । मूर्च्छा परिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा ।। सर्वत्रोपधिना बुद्धाः संरक्षणपरिग्रहे ।
।।२१।।
अप्यात्मनोऽपि देहे, नाचरन्ति ममत्वम् ।।२२।। भावार्थ : ज्ञातपुत्र श्री महावीर परमात्मा के वचन में अनुरक्त मुनि गोमुत्रादि से पकाया हुआ प्राक नमक, समुद्रादि सचित्त नमक, तेल, घृत, नरम गुड आदि किसी भी प्रकार का पदार्थ सन्निधि के रूप में रातभर रखना नहीं चाहते। क्योंकि भगवंत ने कहा हैसंन्निधि रखना यह लोभ कषाय का प्रभाव है। अल्प मात्रा में भी सन्निधि को रखनेवाले को गृहस्थ मानना, साधु मानना नहीं वह दुर्गति के निमित्त रूप क्रिया करता : हैं । ऐसा श्री तीर्थंकर, गणधर, भगवंतों ने कहा है ।
सन्निधि रखनेवाले को गृहस्थ कहा है तो वस्त्रादि रखनेवाले को मुनि कैसे कहा. जाय? . ऐसी शंका के समाधान में कहा है- वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद प्रोंछन रजोहरण आदि आवश्यक सामग्री रखी जाती है वह भी संयम सुरक्षा हेतु है। लज्जा मर्यादा के पालनार्थ है । मूर्च्छारहित उपयोग किया जाता है। इसी हकिकत को आगे सिद्ध किया है।
स्व पर तारक ज्ञातपुत्र श्री महावीर परमात्मा ने ममत्व रहित आवश्यकतानुसार वस्त्रादि रखने को परिग्रह नहीं कहा है। उन वस्त्रादि पर मूर्च्छा है, आसक्ति है, ममत्वभाव है, उसको परिग्रह कहा है। इस हेतु से गणधरादि भगवंतों ने सूत्रों में वस्त्रादि रखने में दोष नहीं कहा।
ज्ञानी महापुरुष सर्वोचित देशकाल में वस्त्रादि उपधियुक्त होते हैं वे छः काय की रक्षा हेतु उसे स्वीकार करते हैं क्योंकि वे अपने देह पर ममत्व भाव से रहित होते हैं तो वस्त्र पर तो ममत्व भाव न हो उसमें कहना ही क्या? इति पंचम संयम स्थानं ।। १८
२२।।
इन आगमोक्त कथन से स्पष्ट हो रहा है कि जहां-जहां वस्त्रादि, पुस्तकादि, श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 95