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कि - हे मुनि! तूं गोचरी के समय को न देखकर अकाल में गोचरी जाता है, अधिक देर घूमना पड़ता है, आत्मा को किलामना होती है, चित्त चंचल बनता है, आहार की प्राप्ति न होने से ग्रामं की, ग्राम निवासियों की निंदा करता है ।।५।।
. गोचरी के समय गोचरी न जाने से आत्म विडंबना होती है। तपोवृद्धि :
सइ काले चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारि।
अलाभुत्ति न सोएज्जा, तवृत्ति अहिआसार ||६|| सं.छा.ः सति काले चरेद् भिक्षुः, कुर्यात् पुरुषकारम्।
अलाभ इति न शोचयेद्, तप इत्यधिसहेत ।।६।। भावार्थ : अकाल में गोचरी जाने से दोषों की उत्पत्ति होती है, अतः समय पर गोचरी जावे, स्वयं के पुरुषार्थको प्रयोग में लें, फिर भी न मिले तो शोक न करें एवं चिंतन करें कि 'आज तप में वृद्धि हुई' इस प्रकार क्षुधा सहन करें ।।६।। मार्ग में विशेष जयणा:- तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया।
तं उज्जुअं न गच्छिज्जा, जयमेव परकमे ||७|| सं.छा.ः तथैवोच्चावचाः प्राणिनो, भक्तार्थं समागताः।
___ तदृजुकं न गच्छेद्, यतमेव पराक्रामेद् ।।७।। भावार्थः गोचरी के लिए जाते समय.मार्ग में दाना चुगते हुए कबुतर आदि प्राणी दिखायी दें तो उनके सन्मुख न जाकर उनको दाना चुगना बंद नहीं करना पड़े इस प्रकार जयणा से चलें ।।७।। धर्मकथा न करें:. गोयरग्गपविठ्ठो अ, न निसीइज्ज कत्थई।
कहं च न पबंधिज्जा, चिठित्ताण व संजर ||6|| ... सं.छा.: गोचराग्रप्रविष्टश्च, न निषीदेत् क्वचिद्।
. कथां च न प्रबध्नीयात्, स्थित्वा वा संयतः ।।८॥ भावार्थः गोचरी के लिए गया हुआ साधुकहीं आसन लगाकर बैठे नहीं एवं न कहीं पर धर्मकथा कहे। ऐसा करने से अनेषणा एवं द्वेषादि का दोष होता है ।।८।। खड़े कैसे रहना?
अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए। अवलंबिआ न चिट्ठिज्जा, गोयरग्गगओ मणी ।।९।। समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं| उवसंकमंतं भत्तठ्ठा, पाणट्ठाए व संजए ||१०।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 79