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सं.छा.: शालूकं वा विरालिका, कुमुदमुत्पलनालिकम्।
मृणालिका सर्षपनालिका, इक्षुखण्डमनिवृत्तम् ।।१८।। तरुणकं वा प्रवालं, रुक्षस्य तृणकस्य वा। अन्यस्य वाऽपि हरितस्य, आमकं परिवर्जयेद् ।।१९।। तरुणां वा छिवाडिं, आमां भर्जितां सकृद्। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।२०।। . तथा कोलमस्विन्नं, वेलुकं काश्यपनालिकम्। तिलपर्पटकं नीम, आमकं परिवर्जयेद् ।।२१।। तथैव तान्दुलं पिष्टं, विकटं [वितट] वा तप्तनिर्वृत्तम्। तिलपिष्टं पूतिपिण्याकं, आमकं परिवर्जयेद् ।।२२।। कपित्थं मातुलिङ्गं च, मूलकं मूलवर्तिकाम्। . आमामशस्त्रपरिणतां, मनसाऽपि न प्रार्थयेद् ।।२३।। तथैव फलमन्थून्, बीजमन्थून् ज्ञात्वा।
बिभीतकं प्रियालं वा, आमकं परिवर्जयेद् ।।२४।।। भावार्थ : सचित्त उत्पल कंद, पलाशकंद, कुमुदनाल, पभकंद, सरसव की डाली, इक्षु के टुकड़े, वृक्ष, तृण एवं हरितादि के सचित्त नये प्रवालादि। जिन में बीज उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसी मुंग आदि की कच्ची फलियाँ, सामान्य से भुंजी हुई मिश्र फलियाँ आदि। बोर, बांस, कारेला, सीवण वृक्ष का फल, तिलपापड़ी, नीमवृक्ष के सचित्त फल आदि। चाँवल का आटा (तुरंत का), कच्चा पानी, तीन उकाले आये बिना का पानी, तिल का आटा, सरसव का सामान्य कूटा हुआ खोल। कच्चे कोठे के फल, बीजोरू, मूला के पत्ते, मूला के कंद, बोर का चूर्ण, जवादि का आटा, बहेड़ा का फल, चारोली और अचित्त हुए बिना कोई भी पदार्थ, दाता वहोराये तो मुनि कह दे कि ऐसा आहार हमें नहीं कल्पता एवं मुनि मन से ऐसा विचार भी न करे कि मैं ऐसा पदार्थ ग्रहण करूं ।।१८-२४।। सभी सुकुलों में गोचरी जाना :
समुआणं चरे भिक्खू, कुलमुच्चावयं सया। .
नीयं कुलमहसम्म, ऊसढं नाभिधारए ||२५|| सं.छा.ः समुदानं चरेद् भिक्षुः, कुलमुच्चावचं सदा।
नीचं कुलमतिक्रम्य, उत्सृतं नाभिधारयेद् ।।२५।। भावार्थ : निर्दोष आहारार्थ हेतु आवश्यकतानुसार सदा समृद्धिवाले, मध्यम एवं साधारण घरों में जो निंदनीय न हो ऐसे घरों में जाना। पर मार्ग में गरीब साधारण व्यक्ति का घर छोड़कर धनाढ्य समृद्धिवाले घर में ही नहीं जाना ।।२५।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् – 82