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किसी के पूछने पर मौन धारणकर्ता रूपचोर, स्वयं आचारहीन होते हुए भी आचारवान् मानने, मनवानेवाला आचारचोर एवं आत्मरमणता न होते हुए भी स्वयं को अध्यात्मिक पुरुष मानने, मनवानेवाला भावचोर। इन पांच प्रकार के चोरों की यह संक्षिप्त व्याख्या है। माया-मृषावाद का त्याग :
एअं च दोसं दह्णं, नायपुत्तेण भासि।
अणुमायंपि मेहावी, मायामोसं विवज्जर ||४९|| सं.छा.: एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम्।
. अणुमात्रमपि मेधावी, मायामृषावादं विवर्जयेद् ।।४९।। भावार्थ : साध्वाचार का पालन करने पर भी किल्बिष देव होने रूप दोषों को देखकर ज्ञातनंदन श्री महावीर परमात्मा ने कहा है कि हे बुद्धिवान् मेधावी साधु! अंशमात्र भी माया मृषावाद सेवन का त्याग कर ।।४९।।
___ साध्वाचार का पालन करनेवाला माया करता है, असत्य बोलता है, उसकी यह दशा श्री महावीर परमात्मा ने कही है। तो जो साध्वाचार का पालन ही न करे एवं माया मृषावाद का सेवन करे उसकी क्या दशा.होगी! उपसंहार :
सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे। . तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिइंदिष्ट,
तिव्वलज्जगुणवं विहरिज्जासि।।५०।। ति बेमि ।।
समत्तं पिंडेसणानामज्झयणं पंचमं ||५|| सं.छा.: शिक्षित्वा भिक्षैषणाशुद्धिं, संयतेभ्यो बुद्धेभ्यः सकाशात्। तत्र भिक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रिय,-स्तीव्रलज्जो गुणवान् विहरेत् ।।५०।।
इति ब्रवीमि॥
समाप्तं पिण्डैषणानामाध्ययनं पञ्चमम् ।।५।। भावार्थ : सूत्रकार श्री पिष्डैषणा अध्ययन की समाप्ति के समय कह रहे हैं कि "तत्त्व के जानकार तत्त्वज्ञ संयमयुक्त गुरु आदिके पास पिण्डैषणा की शद्धि को सीखकर, उस एषणासमिति में पांचों इन्द्रियों से उपयोगी बनकर एवं अनाचारादि सेवम में तीव्रलज्जा युक्त होकर, पूर्व में कहे हुए साधु गुणों को धारण कर विचरें। ऐसा श्री महावीर परमात्मा द्वारा कहा हुआ परंपरा से प्राप्त मैं कहता हूँ।" ||५०।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 88