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भावार्थ ः साधु को आहार करते समय आहार सुगंधी हो या दुर्गंधी जितना हो उतना आहार करना चाहिए, उसमें से अंश मात्र त्याग न करें ।।१।।
सेज्जा निसीहियार, समावन्नो अ गोअरे। अयावयष्ठा भुच्चाणं, जह तेणं न संथरे ।।२।। तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसाए।
विहिणा पुव्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य ।।३।। सं.छा.ः शय्यायां नैषधिक्यां, समापन्नश्च गोचरे।
अयावदर्थं भुक्त्वा , यदि तेन न संस्तरेत् ।।२।। ततः कारणे उत्पन्ने, भक्तपानं गवेषयेत्।
विधिना पूर्वोक्तेन, अनेनोत्तरेण च ।।३।। भावार्थ : उपाश्रय या स्वाध्याय भूमि में रहे हुए या गोचरी गये हुए मुनिभगवंत को आहार करने से क्षुधा शांत न हुई हो, उतने आहार से निर्वाह न हो रहा हो तो, पूर्व में दर्शायी हुई विधि से एवं आगे कही जानेवाली विधि से कारण उपस्थित होने से दूसरी बार आहारार्थ गोचरी जा सकता है। आहार पानी की गवेषणा करें ।।२-३॥ विवेचन : मुनि भगवंत को मूल विधि अनुसार एक बार ही आहार पानी के लिए गोचरी : जाने का विधान है। आहार की पूर्णता न हुई हो, क्षुधा वेदनीय की उपशांतता न हुई हो, स्वाध्यायादि योग में स्वस्थता, चित्त की एकाग्रता न रहती हो तो पुनः गोचरी जाने का विधान दर्शाया है। ये विधान निर्दोष गोचरी की आवश्यकता को प्रकट कर रहे हैं। गोचरी जाने का समय :
कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिकमे। अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ||४|| अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि।
अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ||५|| सं.छा.: कालेन निष्क्रामे भिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रामेत्।
अकालं च विवर्ण्य, काले कालं समाचरेत् ।।४।। अकाले चरसि भिक्षो! कालं न प्रत्युपेक्षसे।
आत्मानं च क्लमयसि, सनिवेशं च गर्हसि ।।५।। भावार्थ : ग्रामानुग्राम विहार करने वाले मुनि को जिस ग्राम में जिस समय आहार की प्राप्ति सुलभ हो उस समय गोचरी के लिए जाना एवं स्वाध्याय करने के समय के पूर्व स्वस्थान में आ जाना। अकाल के समय को छोड़कर जिस समय जो कार्य करना है उस समय वही कार्य करना यही आचारांग सूत्र दर्शित मुनि का कालज्ञ विशेषण हैं ।।४।। विपरीत समय पर गोचरी जानेवाले को सूत्रकार श्री उपालंभ देते हुए कहते हैं
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 78