________________
दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे||३५|| सं.छा. एवं उदकाइँण सस्निग्धेन, सरजस्केन मृत्तिकोषाभ्याम्।
हरितालेनहिगुलकेन, मनःशिलयाऽझेनन लवणेन ।।३३।। गैरिकावर्णिकाश्वेतिकासौराष्ट्रिकापिष्टकुक्कुसकृतेन। उत्कृष्टमसंसृष्टः, संसृष्टश्चैव बोद्धव्यः। ॥३४॥ असंसृष्टेन हस्तेन दा भाजनेन वा।
दीयमानं नेच्छेत्, पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ।।३५॥ भावार्थ : इस प्रकार हाथ से जल झर रहा हो, जलाद्र हो, सचित्त रज युक्त हो, किचड़ युक्त हो, क्षार युक्त हो एवं हरताल हींगलो/मणसिल, अंजन, नमक, गेरू, पीलीमिट्टी खड़ी, फटकड़ी, तुरंत का गेहुं आदि का लोट, क्रौंच बीज,कलींगर आदि फल, शाक आदि से खरंटित हाथ से, या न खरंटित हाथ, चम्मच आदि से आहार वहोरावे तो न ले। पश्चात् कर्म नामक दोष के कारण ।।३३-३५।।
संसट्ठण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा।
दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे||३६|| सं.छा.ः संसृष्टेन च हस्तेन, दा भाजनेन वा।
दीयमानं प्रतीच्छेद्, यत्तत्रैषणीयं भवेत्।।६।। भावार्थ : जो आहार-पांनी निर्दोष हो तो, अन्नादि से लिप्त हाथ, चम्मच या अन्य बर्तन में लेकर दे तो ग्रहण करना। पूर्वकर्म एवं पश्चात्कर्म न लगे इस प्रकार आहार ग्रहण करना. ॥३६॥
दुण्डं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए। . दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहए ||३७|| दुण्डं तु भुंजमाणाणं, दोऽवि तत्थ निमंतए।
दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ||३४|| सं.छा द्वयोस्तु भुञ्जतोः, एकस्तत्र निमन्त्रयेत्।
दीयमानं नेच्छेत्, छन्दं तस्य प्रत्युपेक्षेत ।।३७।। द्वयोस्तु भुञ्जानयो,-विपि तत्र निमन्त्रयेयाताम्।
दीयमानं प्रतीच्छेद्, यत्तत्रैषणीयं भवेत्।।३८।। भावार्थ ः पदार्थ के दो मालिक में से एक निमंत्रण करे और दूसरे के नेत्र विकारादि से वहोराने के भाव दिखायी न दे तो न ले। दोनों के वहोराने के भाव हो और आहार निर्दोष हो तो ग्रहण करें ।।३७-३८।। इन दो श्लोकों से यह स्पष्ट हो रहा है कि पदार्थ के मालिकभाव पूर्वक वहोराने पर भी वह पदार्थ निर्दोष न हो तो ग्रहण नहीं करना
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 65