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चाहिए। केवल वहोराने वाले के भाव ही नहीं देखने हैं, पदार्थ की निर्दोषता भी देखनी आवश्यक है।
गुव्विणीओ उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं । भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुतसेसं पडिच्छर ||३९|| सिआ य समणद्वाट, गुव्विणी कालमासिणी । उठि वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणुट्ठ ||४०|| तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआईक्खे, न मे कप्पइ तारिसं । । ४१ ॥
सं.छा.ः गुर्विण्या उपन्यस्तं, विविधं पानभोजनम्।
भुज्यमानं विवर्जयेत्, भुक्तशेषं प्रतीच्छेत् ॥ ३९ ॥ स्याच्च श्रमणार्थं, गुर्विणी कालमासिनी । उत्थिता वा निषीदेद्, निषन्ना वा पुनरुत्तिष्ठेद् ||४०|| तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिकम् ।
ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४१॥ भावार्थ : गर्भवती स्त्री के लिए विविध भोजन तैयार किये हुए हो वह आहार न ले, पर उसके खाने के बाद अधिक हो तो ग्रहण कर सकता है ।। ३९ ।।
कभी पूर्ण मासवाली अर्थात् नौंवे महिनेवाली गर्भवती स्त्री साधु को वहोराने के लिए खड़ी हो तो बैठ जाय या बैठी हो तो खड़ी हो जाय तो उसकें हाथ से आहार लेना न कल्पे ॥ ४० ॥ (परन्तु वह बैठी हो उसके पास आहार / पदार्थ हो और बैठी- बैठी वहोराये तो लेना कल्पे।)
गर्भवती का भोजन एवं गर्भवती द्वारा दिये जानेवाले आहार के लिए साधु
निषेध करे कि ऐसा आहार लेना हमें नहीं कल्पता ।।४१ ||
थणगं पिज्जेमाणी, दारगं वा कुमारि ।
तं निक्खिवितु रोअंतं, आहरे पाणभोअणं ॥ ४२ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआईक्खे, न मे कप्पइ तारिखं ||४३|| जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकिअं। दितिअं पडिआईक्खे, न मे कप्पर तारिसं ॥ ४४ ॥ दगवारेण पिहिअं, नीसार पीढरण वा । लोढेण वा वि लेवेण सिलेसेण व केणई ||४५ || तं च उब्भिदिउं दिज्जा, समणद्वार व दावए । दितिअं पडिआईक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ||४६ ||
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 66