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सं.छा. नीचद्वारं तामसं, कोष्ठकं परिवर्जयेत्।
___ अचक्षुर्विषयो यत्र, प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीयाः।।२०॥ . भावार्थ : जहां जिस घर का द्वार अति नीचे हो, झुककर जाना पड़ता हो, अंधकारयुक्त कोठार, भूमिगत (भाग) स्थान,कमरा आदिहो, वहां साधु गोचरी न जाय,कारण बताते हुए कहा कि (आँख) चक्षु से पूर्णरूप से पदार्थ दिखायी न दे, त्रसादिजीवों की जयणा न हो सके, ईर्यासमिति का पूर्ण पालन न हो सके द्वार नीचा होने से कहीं चोट लगना भी संभव है।।२०॥
जत्थ पुप्फाइं बीआई, विप्पइन्नाई कुट्ठए। . अहुणोवलित्तं उल्ल, दह्णं परिवजए||२१|| सं.छा.ः यत्र पुष्पाणि बीजानि, विप्रकीर्णानि कोष्ठके।
अधुनोपलिप्तमा, दृष्ट्वा परिवर्जयेत्।।२१॥ एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कुटुए।
उल्लंघिआ न पविसे, विउहित्ताण व संजए।।२२।। सं.छा.ः एडकं दारकं श्वानं, वत्सकं वाऽपि कोष्टके।
उल्लङ्घ्य न प्रविशेद्, व्यूह्य वा संयतः ।।२२।। भावार्थ : जिस घर के द्वार में पुष्प, बीजादि बिखरे हुए हो, धान्य के दाने हो, तुरंत का लीपन आदि किया हो तो उस घर में, एवं एलग (घेटा), बालक, श्वान, बछड़ा आदि बैठा हुआ हो तो उसका उल्लंघनकर, उसको निकालकर या उसे उठाकर उस घर में प्रवेश न करें। गोचरी आदि हेतु न जायें ।।२१-२२।।
वर्तमान युग में अधिकांश से लीपन के स्थान पर फर्श धोने की प्रथा विशेष है अतः फर्श पानी से भिगी हुई हो तो प्रवेश न करें। तुरंत पोता किया हुआ हो तो अंदर न जाएं।
असंसत्तं पलोइज्जा, नाइदूरावलोयर।
उप्फुल्लं न विणिज्झाए, निअहिज्ज अयंपिरो||२३|| सं.छा.: असंसक्तं प्रलोकयेन्नातिदूरं प्रलोकयेत्।
उत्फुल्लं न विनिध्यायेत्, निवर्तेताजल्पन्॥२३।। भावार्थ : गृहस्थ के घर में गोचरी वहोराते समय साधु को किस प्रकार रहना चाहिए उसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि - स्त्री जाति पर आसक्ति भाव न लाकर स्वयं के कार्य का अवलोकन करना, घर में अति लम्बी नजर न करना, घर के लोगों को विकस्वर नजरों से न देखना, आहारादि न मिले तो दीन वचन नहीं बोलकर लौट जाना चाहिए ।।२३।।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 62