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समणुजाणामि तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि. तच्चे भंते महव्वर उवढिओमि सव्वाओ
अदिन्नादाणाओ वेरमणं ||३|| (सू.५) सं.छा.ः अथापरस्मिंस्तृतीये भदन्त! महाव्रतेऽदत्तादानाद्विरमणं. सर्वं भदन्त! ...
अदत्तादानं प्रत्याख्याम्यथ ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा अल्पं वा, बहु वा, अणु वा स्थूलं वा, चित्तवद्वाऽचित्तवद्वा नैव स्वयं अदत्तं .. गृह्णामि नैवान्यैरदत्तंग्राहयामि अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि तस्य भदन्त! . प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हाम्यात्मानं व्युत्सृजामि तृतीये भदन्त! ..
महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वतोऽदत्तादानाद्विरमणम् ।।३।। (सू.५)... शब्दार्थ - (अह) इसके बाद (भंते) हे ज्ञाननिधे! (अवरे) आगे के (तच्चे) तिसरे. (महव्वए) महाव्रत में (अदिन्नादाणाओ) चोरी से (वेरमणं) दूर होना जिनेश्वरों ने कहा है, अतएव (सव्वं) सभी प्रकार की (अदिन्ना दाणं) चोरी का (भंते) हे गुरु! (पच्चक्खामि) मैं प्रत्याख्यान करता हूं (से) वह (गामे वा') गाँव में (नगरे वा) नगर में (रण्णे वा) जंगल में (अप्पं वा) अल्पमूल्यतृण आदि, (बहुं वा) बहुमूल्य स्वर्ण आदि, (अणुंवा) एरण्ड की पत्ती,काष्ट की चिरपट या तिनका आदि, (थूलं वा) सोना, चांदी, रत्न आदि (चित्तमंतं वा) सजीव बालक, बालिका आदि (अचित्तमंतं वा) अजीव वस्त्र, आभूषण आदि (अदिण्णं') बिना दिये हुए (सयं) खुद (गिण्हिज्जा) ग्रहण करे (नेव) नहीं, (अन्नेहिं) दूसरों के पास (अदिण्णं) बिना दिये हुए (गिण्हते) ग्रहण करते हुए (अन्ने वि) दूसरों को भी (न समणुजाणेज्जा) अच्छा समझे नहीं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा। इसलिए (जावज्जीवाए) जीवन पर्यंत (तिविहं) कृत,कारित, अनुमोदन रूप त्रिविध अदत्तादान को (मणेणं) मन (वायाए) वचन (काएणं) काया रूप (तिविहेण) तीन योग से (न करेमि) नहीं करता हूँ (न कारवेमि) नहीं कराऊ (करंत) करते हुए (अन्नं पि) दूसरों को भी (न समणुजाणामि) अच्छा नहीं समझू (भंते) हे गुरु! (तस्स) भूतकाल में किये गये अदत्तादान की (पडिक्कमामि) प्रतिक्रमण रूप आलोयणा करता हूँ (निंदामि) आत्मसाक्षी से निंदा करता हूँ (गरिहामि) गुरु-साक्षी से गर्दा करता हूँ (अप्पाणं) अदत्त लेनेवाली आत्मा का (वोसिरामि) त्याग करता हूँ (भंते) हे प्रभो! (तच्चे) तीसरे (महव्वए) महाव्रत में (सव्वाओ) समस्त (अदिन्नादाणाओ) अदत्तादान से (वेरमण) १ 'वा' शब्द से गाँव, नगर और अल्पमूल्य, बहुमूल्य आदि वस्तुओं में तज्जातीय भेदों को ग्रहण करना
चाहिए। २ यहाँ अदिण्णं से, साधुयोग्य वस्तुओं को बिना दी हुई न लेना, यह मतलब है। स्वर्ण, रत्न आदि तो साधुओं के अग्राह्य ही हैं, जो आगे दिखाया जायगा।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 28