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मोक्ष की मान्यता
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'यथाप्रवृत्तिकरण' ( सम्यग्दृष्टि जैसी प्रवृत्ति) तक आ जाता है, किंतु वह मिथ्यात्व की गाठ को नही तोड सकता और मिथ्यात्व मे ही पड़ा रहता है। कई जीव ऐसे दुर्भागी होते हैं, जो जैन कुल मे जन्मादि उत्तम कारणो की अनुकूलता पाकर भी मिथ्यादृष्टि रहते हैं, और दूसरो को मिथ्यात्वी बनने में निमित्त वनते हैं । वे ससार के विविध वाद, मध्यम मार्ग, लौकिक सुधार अथवा जड विज्ञान की चकाचौध पर मोहित होकर दुनियादारी मे ही उलझ जाते हैं । भौतिक उपकार को ही मोक्ष मार्ग मान लेते हैं और मोक्ष के वास्तविक कारणो ( साधनो ) पर अविश्वासी होकर असम्यग्दृष्टि बन जाते हैं ।
सम्यक्त्व के बाधक कारणो मे श्रान्तरिक कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय और बाह्य कारण मिथ्यादृष्टियो और उनके साहित्यादि का परिचयादि है । ऐसे बाधक कारण वर्त्त - मान समय मे अधिक व्यापक हो रहे हैं । इनसे बचने के लिए सतत सावधानी रखनी चाहिए, जिससे सम्यक्त्व सुरक्षित रहे ।
मोक्ष की मान्यता
सभी तत्त्वो की यथार्थ मान्यता ही सम्यग्दर्शन है। इसमे न्यूनाधिकता को किञ्चित् भी स्थान नही है । यदि जीव, जीव, बन्ध, पुण्य, पाप, श्राश्रव, संवर और निर्जरा, इन श्राठ तत्त्वो पर विश्वास कर लिया और एक मात्र मोक्ष तत्त्व पर विश्वास नही किया, तो वह सम्यग्दृष्टि की कोटि मे नही श्री सकता । देव, गुरु और धर्म पर अनुराग रखते हुए और
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