Book Title: Samyaktva Vimarsh
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 290
________________ २६६ सम्यक्त्व विमर्श किसी दूसरे अवलम्बन की आवश्यकता हो। उस समय प्रात्मा स्वयं इतनी शक्तिमान हो जाती है कि जिसके सामने इस विषय का कोई प्रश्न या बाधा ही खडी नही होती । उसकी प्रात्म. स्थिरता से वह शभ अवलम्बन भी अपने पाप छट जाता है और आत्मा, परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेती है।। उपरोक्त विचारणा एवं प्रक्रिया की उपेक्षा करके जो एकात निश्चय को ही पकडकर बैठ जाते है और पर को एकात और सभी अवस्थाओ मे हेय कह कर सजातीय आदर्श अवलम्बन को (खुद अपनाते हुए भी) त्यागनीय कहते है, वे सन्मार्ग से इन्कार करते हैं। एक ओर निश्चयवादी, शुद्ध व्यवहार धर्म का निषेध करते हैं, तो दूसरी ओर कोई लोक-व्यवहार की रुचिवाले, अशुद्ध व्यवहार-सावद्य-प्रवृत्ति को मोक्ष मार्ग बताकर जिनधर्म के प्रति अन्याय करते है। कोई आचार्य उपाध्याय पद पर रहते हुए और मोक्ष साधक का वेश धारण करते हुए भी जनसेवा के नाम पर, समाजवाद के बहाने से, या सर्वोदय की ओट से, प्रारंभ परिग्रहादि सावध परिणति वाला प्रचार करते है, वे निश्चय और व्यवहार, इन दोनो पक्षो के विघातक हैं। और 'जो लक्ष्य-शुद्धि के साथ, शुद्ध व्यवहार धर्म के अवलम्बन से, लक्ष की ओर बढने मे प्रयत्न शील है, वे उभय साधक होकर, स्व-पर के विवेक से युक्त है। वे सफलता की ओर अग्रसर हो रहे है।

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