Book Title: Samyaktva Vimarsh
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 323
________________ सम्यक्त्व महिमा २६६ से । अभी तीसरा साधन प्राय. नही है। दो साधनो से ही परीक्षा करनी चाहिए, अन्यथा धोखा खा जाओगे और खो बैठोगे-इस दुर्लभ रत्न को। धन्य है वे प्राणी, जो अपने सम्यक्त्वरूपी रत्न की रक्षा करते हुए दृढ रहते हैं और दूसरो को भी दृढ बनाते है । उन्हे वारबार धन्यवाद है। "संवेगेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ, अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोभे खवेइ, णवं कम्म ण बंधइ, तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ, दसणविसोहीए य गं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणणं सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं णाइक्कमइ" ॥१॥ हे भगवन् ! सवेग से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर-संवेग से उत्तम धर्म श्रद्धा जागृत होती है। धर्म की उत्कृष्ट श्रद्धा करने से संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) की शीघ्र प्राप्ति होती है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय होता है । नये कर्मों का बन्धन नही होता। मिथ्यात्व की विशुद्धि होकर दर्शन की आराधना होती है। दर्शन विशुद्धि से शुद्ध होने पर कोई तो उसी भव मे सिद्ध हो

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329