Book Title: Samyaktva Vimarsh
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 325
________________ सम्यक्त्व महिमा कुणमाणोऽवि य किरियं परिच्चंयतोऽवि सयणधणभोए। दितोऽवि दुहस्स उरं न जिणइ अंधो पराणियं । -स्वजन धन एवं भोग का त्याग करता हुआ, दुख की उपेक्षा करता हुआ और अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता हुआ भी अन्धा मनुष्य, शत्रु-सैन्य पर विजय प्राप्त नही कर सकता उसी प्रकार;कुणमाणोऽवि निवित्ति, परिच्चयंतोऽवि सयणधणभोए । दितोऽवि दुहस्स उसं मिच्छदिद्धिं न सिज्झई । -स्वजन, धन और भोग के त्यागपूर्वक, यम नियम रूपी निवत्ति मार्ग का सेवन करता हरा और पचाग्नि ताप आवि दु.ख की उपेक्षा करता हुप्रा भी मियादृष्टि ( सम्यक्त्व के अभाव मे) सिद्ध पद प्राप्त नहीं कर सकता । (प्राचाराग अ ४ की नियुक्ति) जह केवलम्मि पत्ते तेणेव भवेण वण्णिओ मोक्खो। पगरिसगुणभावाओ तह सम्मत्तेऽवि सो समओ ॥ -जिसे केवलज्ञान प्राप्त हो जाय, वह उसी भव में मुक्ति प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार प्रकर्षगुणत्व युक्त प्राप्त सम्यक्त्व से भी मुक्ति प्रात होती है। सम्यक्त्व की महिमा, उत्तम कोटि के द्रव्य चारित्र से भी अधिक है । कहा है किसम्वजियाणं चिय जं सुत्ते गेविज्जगेसु उवदाओ। भणिओ नय सो एयं लिंगं मोत्तुं ।

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