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आत्मदर्शन और सम्यग्दर्शन
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मे श्रद्धा रखता हुया प्रात्मकल्याण कर सकता है । ऐसी सक्षेपरुचिवाले सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादष्टि नहीं कह सकते ।।
प्रश्न-जब तक प्रात्मा का वास्तविक ज्ञान नही हो सकता, तब तक प्रात्मत्व की प्राप्ति नही हो सकती । जब आत्मत्व की ही प्राप्ति नही हो सकती, तो मुक्ति तो हो ही कैसे सकती है ? जिस वस्तु को जो जानता ही नही, वह उसे प्राप्त कैसे कर सकता है ?
उत्तर-प्रारम्भ मे ही प्रात्मा का अनुभव-ज्ञान, बहुत कम जीवो को होता है। अधिकतर जीव, उपदेश से ही सम्यक्त्व के समुख होते हैं । जो निसर्गरुचि वाले होते है, उनमे भी पूर्वभव मे उपदेश द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले और ज्ञानाभ्यास किये हुए होते है । उन्ही मस्कारो से, बाद के भव मे सरलता से ज्ञान हो सकता है । अन्यथा पहले गुरु के निर्देशानुसार अभ्यास करना आवश्यक होता है । वह अभ्यास उसे आत्मानुभव करा सकता है।
प्रश्न-सब से पहले आत्मानुभव कराना आवश्यक है। जब तक यह नही हो जाता, तब तक सामायिक, प्रतिक्रमण, आदि पढाना व्यर्थ है । आप इस मूल वस्तु को छोडकर सब से। पहले सामायिक प्रतिक्रमण क्यो पढाते हैं ? आत्मा को जाना ही नही, तो सामायिकादि जानने का क्या लाभ ?
उत्तर-गभीरतापूर्वक विचार करने पर मालूम होगा कि ज्ञानाभ्यास और विरति का जो क्रम चला आ रहा है, वह उचित, हितकारी एव यथार्थ है। इसके विपरीत बाते व्यर्थ है।'