Book Title: Samyaktva Vimarsh
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 320
________________ २६६ सम्यक्त्व विमर्श सद्देवः सुगुरुः सुधर्म इति सत्तत्त्वत्रयं कथ्यते । ज्ञात्वा तत्परमार्थतः कुरु रुचि तत्त्वत्रये निर्मले ॥ -धर्म की जो भी क्रिया हो, वह सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होनी चाहिए। जिनेश्वर भगवंतो ने सम्यग्दृष्टि का स्वरूप तत्त्वार्थ की रुचिरूप बतलाया है । सुदेव, सद्गुरु और सद्धर्म, ये तीन तत्त्व कहे है । हे सुज्ञ | इन तीनो तत्त्वो का पारमार्थिक स्वरूप समझ और विशुद्ध स्वरूप में रुचिवत होजा-अटल एवं दृढ श्रद्धालु बनजा। 'मोक्षपाहड' मे लिखा किगहिऊण य सम्मत्तं, सुणिम्मलं सुरगिरीव णिकंपं । तंज्ञाणे भाइज्जइ सावय ! दुक्खखयदाए । -श्रावक को सम्यक्त्व प्राप्त करके उसे निर्मल, निष्कम्प और मेरु पर्वत की तरह अचल रखना चाहिये और समस्त दुखो का नाश करने के लिए सदैव ध्यान मे रखना चाहिए । इस प्रकार सम्यग्दर्शन की महिमा अपरंपार है। सभी जैनाचार्यों ने एक मत से इस बात को स्वीकार की है, किंतु उदय के प्रभाव से कुछ लोग ऐसे भी है जो "तत्त्वार्थ श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन" को नही मानकर, अपनी मति-कल्पना से सिद्धात को दूषित करते हैं और अपनी समझ मे आवे उसको ही सत्य मानने को सम्यक्त्व कहते हैं-भले ही वे खुद भूल कर रहे हो । कुछ ऐसे भी हैं जो अागमो का अर्थ अपनी इच्छानुसार -विपरीत करके, मिथ्या प्रचार करते हुए, सम्यक्त्व को दूषित

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