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सम्यक्त्व महिमा
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नही हो, तो उद्योत हो ही कसे ? उसकी उपयोगिता ही क्या ? इसी प्रकार धर्म और सघ की उपयोगिता, सम्यक्त्व के साथ ही है । बिना सम्यक्त्व के सघ भी निरुपयोगी-व्यर्थ रह जाता है ।
भगवान् ने फरमाया है कि "सद्धा परम दुल्लहा"श्रद्धा की प्राप्ति परम दुर्लभ है (उत्तरा. ३-६)
श्री उत्तराध्ययन सूत्र अ २८ गा. ३० इस प्रकार हैणा दंसणिस्स णाणं, णाणेण विणा णहंति चरणगुणा। अगुणिस्स पत्थि मोक्खो, णत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं॥
(उत्तरा. २८-३०) -दर्शन के बिना ज्ञान नही होता और जिसमे ज्ञान नही, उसमे चारित्र गुण नहीं होता । ऐसे गुण-हीन पुरुष की मुक्ति नहीं होती और बिना मुक्ति के शाश्वत सुख की प्राप्ति भी नहीं होती।
इसके पूर्व कहा कि-"णत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूर्ण"-सम्यक्त्व के विना चारित्र नही होता ।
प्रज्ञापना सूत्र के २२ वे पद मे लिखा कि
"जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ तस्स अपच्चक्खाणकिरिया णियमा कज्जा"।
अर्थात्-जिसको मिथ्यादर्शन प्रत्ययिक क्रिया लगती है, उसे अप्रत्याख्यान क्रिया अवश्य लगती है। सम्यग्दर्शन के अभाव मे की हुई क्रिया, सम्यक् चारित्र रूप नही होती ।
श्री सूयगडाग सूत्र अ ८ मे कहा है कि