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बिना त्याग के भी सम्यक्त्व ?
शका - यदि सम्यग्दृष्टि होकर भी विषय कषाय में उलझे रहे, भोग रोग में फँसे रहे, लडाई झगडे करते रहे, तो सम्यग्दृष्टि मे और मिथ्यादृष्टि मे अतर ही क्या है ?
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समाधान- श्रन्तर, समझ और श्रद्धा का है । श्रापको यह समझ लेना चाहिये कि 'मोहनीय कर्म' के दो भेद है, - १ दर्शनमोहनीय और २ चारित्र मोहनीय । जिसके दर्शन मोहनीय का उदय होता है, उसके चारित्र मोहनीय का उदय नियम से होता ही है । किंतु जिसके चारित्र मोहनीय का उदय होता है, उसके दर्शनमोहनीय का उदय होता भी है ओर नही भी होता | दर्शनमोहनीय का जिसके क्षयोपशम हो, उसके चारित्र मोहनीय का उदय जोरदार एवं तीव्र रूप से भी हो सकता है, और तीव्रतर भी हो सकता है । जैसे- भवनपत्यादि सम्यग्दृष्टि देव, सम्यग्दृष्टि नारक, श्री कृष्ण तथा श्रेणिक जैसे मनुष्य । नारक ओर देवो के तो चारित्र मोहनीय का उदय भवपर्यन्त रहता ही है और कई मनुष्यो के भी रहता है । श्री कृष्ण के सत्यभामादि रानिये होते हुए भी भोग लालसा बनी रही और रुक्मिणी की ओर ललचाये तथा युद्ध किये । उनकी सम्यक्त्व की कसोटी वही हुई कि जब पटरानियो ने महाभिनिष्क्रमण करना चाहा, तो उन्हे रोका नही । श्रपने हाथो से महोत्सव पूर्वक प्रव्रजित कराया । भोगविलास, राज्य सचालन श्रोर युद्धादि मे संलग्न होते हुए भी अन्तर मे तो यही दृढ अभिप्राय कि यह सब खोटा है - दुख दायक है, प्रध पतन का मार्ग है । यदि सत्य है, तथ्य है, परम सुख का मार्ग है, तो एक मात्र मोक्ष मार्ग ही है ।