________________
१६६
सम्यक्त्व विमर्श
श्वरों के वचन सत्य ही है." उसे सम्यक अथवा असम्यक् वस्तु भी, सम्यग्रूप मे ही परिणत होती है। किंतु जिसका श्रद्धा ही अशुद्ध है, जिसकी विचारणा ही असम्यग् है, अर्थात् जा मिथ्यादृष्टि है, उसको तो सम्यक् और असम्यक-दोनो प्रकार की वस्तु, असम्यक्-मिथ्यारूप ही परिणमती है ।
तात्पर्य यह कि सम्यग्ज्ञान के सद्भाव मे कदाचित गलत धारणा भी हो जाय, तो वह मिथ्यादृष्टि नहीं कहा जाता, परतु यदि वह समझाने पर भी नही माने और आगम प्रमाण उपस्थित होने पर भी अपना हठ नही छोड कर, खोटे पक्ष को पकड़े रहे, तो वह मिथ्यात्वी हो जाता है और 'अभिनिवेश मिथ्यात्व' मे उसकी गणना होती है । अतएव सम्यग्दृष्टि को चाहिए कि वह श्रुतज्ञानी के द्वारा, आगमानुसार समझाने पर अपनी पूर्व की भूल सुधार कर विशुद्धि कर ले और प्राभिग्राहिक मिथ्यात्व से वचित रहे।
१२ अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व
गुण दोष की परीक्षा नही करते हुए सभी पक्षो को समान रूप से मानना।
दो प्रकार की भिन्न वस्तुओ मे भी गुणो की तरतमता होती है, दोनो समान नही हो सकती, तब अनेक मतो मे समा. नता कैसे हो सकती है ? यह साधारणसी बात भी नही समझ कर जो सभी मतो को समान बतलाते हैं, वे अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वी हैं।