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कितनी बडी मूल
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स्वार्थ के कारण मिथ्यात्वी देवो को मानना, श्रावक का कर्त्तव्य नही है । जिसके मनमे यह दृढ श्रद्धा हो कि - " कर्म का फल श्रवश्य ही भोगना पडता है । इन लौकिक देवो की यह शक्ति नही कि हमारे कर्म - परिणाम को पलट सके," वे तो इस मिथ्यात्व से दूर ही रहते हैं |
श्रावको के जो ग्रागार है, उनमें पाँच तो दूसरे व्यक्तियो के दबाव के कारण है । वहा उस श्रावक का हृदय, उन देवो के प्रति भक्ति नही रखता, किंतु दबाव के कारण उसका शरीर झुकता है । दूसरो का दबाव शरीर पर ही चल सकता है, भावो पर नही | अतिम आगार विषम परिस्थिति को पार करने से संबधित है, वह भी ऊपरी मन से । किंतु अभी तो स्थिति ही दूसरी है |
लोग, जिन्हे 'देव' कहते हैं, वहाँ देव का सद्भाव भी है, या सब पोलपोल ही है, यह कोई नही देखता । भेडचाल मे पडकर चाहे जिस मूर्ति या चित्र के आगे भावपूर्वक झुक जाना भी वैसी ही मूर्खता है, जैसी मुर्दे के साथ अलाप-संलापादि क्रिया करना है ।
कितनी बड़ी भूल
बिना किसी खास कठिनाई के खोटी रुढि के वश होकर, प्रथवा भोदू बनकर, त्योहारो के अवसरो पर कल्पित देवो को मनाना भी केवल मिथ्यात्व सेवन करना है, क्योकि वहा न तो कोई कठिनाई है और न कोई दबाव ही एक खोटी रूढ़ि को मूर्ख बनकर चलाना है । हमारी कितनी गहरी भूल है