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सजातीय विजातीय
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रूप पर का आश्रय लेना हितकर ही है। जिस प्रकार माता पिता समान पालक के सहारे से, बालक सुरक्षित रह कर बडा होता है और समर्थ बन जाता है, उसी प्रकार देव गुरु और धर्मरूपी माता, पिता, ज्येष्ठ बाधवो तथा मित्रो के सहारे से पापरूपी शत्रुओ से बचता हुआ जीव, शक्तिमान बन जाता है । जब तक बालक है, तबतक उसे पालक की प्रावश्यकता रहती है। वडा हो जाने पर वह स्वय अपना और दूसरो का पालक पिता बन जाता है, ठीक यही बात आत्मा के विषय मे है। जबतक वह पाप-मिथ्यात्व-अविरति आदि मे फंसा है, तबतक उनसे पृथक होने के लिए, उसे देवादि तथा व्यवहार-धर्म रूप विरति आदि की आवश्यकता होती ही है, और इसी के सहारे से वह सप्तम गुणस्थान तक प्रगति करता है । यहाँ तक वह इतना समर्थ हो जाता है कि फिर स्वय अपूर्वकरण कर-क्षपक श्रेणी का आरोहण करके, अवशेष शत्रुओ को क्षय करता हुआ पूर्ण विजेता हो जाता है। पालक बन जाता है, जैन से जिन हो जाता है। फिर उसे किसी के अवलम्बन की आवश्यकता नही रहती।
अकेला पुरुष, अपना धन माल लेकर निर्जन वन में जा रहा है । चोरो लुटेरो और भयानक हिंसक पशुओ का भय है। ऐसी विषम परिस्थिति मे, किसी विश्वास पात्र सहायक को 'पराया' कह कर साथी नही बनाने देने वाले और अकेले को चोर डाकुओ के बीच छोड़ने वाले सलाहकार, किस प्रकार हितैषी अथवा समझदार हो सकते हैं ? जिन्होने शत्रु और मित्र का