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स्व-पर विवेक
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अतएव शुद्ध निर्दोष ज्ञानियों के आधार का अवलम्बन लेकर अपनी परिणति देखना और निर्दोष बनने का प्रयत्न करना ही हितकर है |
स्व- पर विवेक
जड के सम्बन्ध से हमारी आत्मा इतनी अधिक बँधी हुई है कि जिससे छूटना बड़ा कठिन हो रहा है । बन्धनो की कठोरता, अधिकता और दृढतमता ने, अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा को एकदम कमजोर बना दिया और बन्धनरूप शत्रु बलवान हो गया । बलवान शत्रु पर विजय पाना, कमजोर व्यक्ति के लिए अशक्य है । उसे तो हर हालत मे दूसरे की सहायता लेनी ही पडेगी । बिना दूसरो की सहायता के एक कमजोर व्यक्ति, कभी विजय प्राप्त नही कर सकता ।
आत्मा, कर्मों के बन्धनो मे बंधी हुई है, आज से नही, श्रनादिकाल से । अनन्त आत्माएँ तो ऐसी है कि जिन्हे अपनेपन का ज्ञान ही नही है । कई आत्मा के अस्तित्व को ही नही मानते, कई मानते हैं, तो स्वरूप की प्रज्ञानता से विपरीत समझते हैं । कुछ जीव ऐसे भी हैं जिन्हे आत्म-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान है और वे शत्रु तथा मित्र को पहिचानते हैं । ऐसे थोडे से जीव ही कर्म-शत्रु पर विजय प्राप्त कर स्वतन्त्र होने मे यथाशक्ति प्रयत्नशील हैं । वे मानते हैं कि कर्म-बन्धनो मे जकड़ी हुई आत्मा, किस प्रकार मुक्त हो सकती है ।
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शंका- श्रात्मा, स्वतन्त्र द्रव्य है । उसे जड-कर्म नही बाँध