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आभिनिवेशिक मिथ्यात्व
१७५ - more...................................mom पक्ष वाले ऐसा ही है, परन्तु करते समय अप्रतिष्ठा का विचार सामने आकर खडा हो जाता है और उस आत्मा को अभिनिवेश मिथ्यात्व मे ले जाता है। कमलप्रभ. आचार्य ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के कारण ही सत्य को छुपा कर अनन्त ससार बढाया था। हम अपने जीवन मे ऐसे कई प्रसग देख चुके और देखें रहे हैं। हमारे सामने ऐसे अनेक प्रमाण है कि जिसमे प्रतिष्ठा के भूत के प्रभाव से, असत्य पक्ष को पकड़े हुए अनेक व्यक्ति बैठे हैं । लोकाशाह की क्रान्ति का कारण क्या था ? सस्कृतिरक्षक सघ स्थापना का निमित्त क्या हुआ? हमारी धर्म-सम्मत आगम-सम्मत एवं अकाट्य बाते स्वीकार क्यो नही हुई ? प्रागमो मे हुआ परिवर्तन, सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट है, उसे साधारण मनुष्य भी समझ सकता है, किंतु इस प्रतिष्ठा के भत ने किसी को अपना हठ नही छोडने दिया । साधुओ की गोचरी के विरुद्ध विद्रोही विचार प्रकट करने वाले ने, अपने असत्य को सत्य बताने के लिए, प्रागमो को अप्रामाणिक बताने की कोशीश तो की, परन्तु अपनी भूल स्वीकार नही की । जब कि जैन-जनता जानती है कि सवर युक्त जीवन वाले जैनमुनि, प्रास्रवपूर्ण जीवन नही बिता सकते, और बिना आस्रवी जीवन के स्वोपाजित भोजन निष्पन्न नही हो सकता। प्रास्रवमय जीवन, जैन गृहस्थो का है, साधुओ का नही। बिना किसी दबाव से, भक्ति पूर्वक दिये हुए स्वल्प भोजन को 'खून' जैसी एकान्त खोटी उपमा देना, विद्वत्ता के नाम पर भारी कलंक है। जिसे प्रेम से पिलाये हुए माता के दूध की उपमा दी जानी