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सम्यक्त्व विमर्श
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की कुचेष्टा कर चुके हैं और कर रहे है । वास्तव मे यह श्रनेकात का दुरुपयोग है। जैन सिद्धात ऐसे दुरुपयोग को स्वीकार नही करता । जिसमे मिथ्यात्व रहा हुआ है, वह यदि कुछ जीवो की दया पाले और अपने को अहिंसक बतलावे, तो भी उसके प्रत्याख्यान को 'दुष्प्रत्याख्यान' माना गया है और उसे प्रसयत अविरत अनिवृत्त और एकात बाल * माना है । श्रीश्रार्द्रकुमार मुनि ने हस्ति तापसो और बौद्धादि के झूठं समन्वय को भी स्वीकार नही किया x । व्यवहार मे भी सेरभर दूध मे बिंदुभर विष हो, तो नहीं पिया जाता । लेकिन धर्म का जहां सवाल प्राया कि नामधारी विद्वान्, अनेकात को श्रागे करके सभी धर्मों को समान बताने की कुचेष्टा करते है । यदि अनेकात के साथ हेय, ज्ञेय और उपादेय के विवेक को स्वीकार किया जाय, तो सारे दोष दूर हो सकते है ।
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सभी समान नहीं
सर्व-धर्म समभाव का प्रचार करने वाले लोग, जैन नही । वें भगवती सूत्र श. ३ उ. २ लिखित उस तामली तापस जैसे है, जो 'प्रणामा' नामकी प्रव्रज्या का पालक था और कोप्रा, कुत्ता श्रादि सब को प्रणाम करता था । विश्व के सभी जीवो को परमात्म-मय मानकर प्रणाम करने का सिद्धात, श्राज भी पढने मे आता है । जैसे
" सिय-राम मय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरि जुग पानी ।"
* भगवती ७- २ । सूयगड़ाग २ - ६ ।
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