________________
सम्यक्त्व विमर्श
नही है । जब मिथ्यात्वी-दर्शन और चारित्र मोहनीय के उदय वाला भी, वैमानिक देव हो सकता है, तो सम्यग्दष्टि हो उसमे बाधा ही क्या है ? यदि वैज्ञानिक ढग से सोचे, तो ऐसे प्राणी के हृदय मे सम्यक्त्व का सस्कार होने के कारण सदैव ऐसी धारणा बनी रहती है कि 'मैं जो कुछ कर रहा हूँ, वह ठीक नही है । मेरी आत्मा के लिए हितकर और सुखदायक नही है । खरी शांति देने वाला तो त्याग ही है-भोग नही, विरति ही है-अविरति नही, सवर ही है-आश्रव नही, मोक्ष ही है--ससार नही । जिस दिन इस भोग रूपी रोग से मुक्त होकर त्याग के मार्ग पर चलूंगा, तभी मैं सन्मार्ग पर लगूंगा और उसी से मझे परमानद की प्राप्ति होगी।' इस प्रकार का अभिप्राय जिसके हृदय मे बना रहे, उसकी गति नही बिगड सकती । प्रथम श्रेणी के राजबदी को कैद मे खान-पानादि की सुविधा (घर से भी ठीक) होते हुए भी वह अपने को बदी मानता है। साधारण कैदियो से (-जिनसे कठोर परिश्रम कराया जाता है) उस प्रथम श्रेणी के राजबन्दी की स्थिति बहत अच्छी होती है। साधारण कैदियो को उसका काम करना पड़ता है । साधारण बन्दियो की दृष्टि मे वह प्रथम श्रेणी का राजबंदी सुखी है। फिर भी उस बदी का मन कैद मे प्रसन्न नही रहता । वह आजादी को ही उत्तमोत्तम मानता है और आजाद होने की कामना रखता है । उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की दशा होती है । यद्यपि उसके अशुभ लेश्याओ का उदय होता है, किन्तु वह ऐसा होता है कि जिससे नीच गति का प्राय नही