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निगोद से खिच कर लाने वाला
तो वह अवश्य ही, उसी भव मे मुक्ति प्राप्त करेगा। यदि चारित्र से गिर गया, तो फिर चढेगा,अवश्य चढेगा । उसका वह आधारस्तभ उसे नही गिरने देगा । ऐसा अचिन्त्य अनुपम और अपूर्व प्रभाव है इस सम्यक्वरूपी आधार स्तंभ का।
निगोद से खिंच कर लाने वाला
मिथ्यात्व के उदय से जीव, सम्यक्त्व से पतित हो जाता है। ऐसे जीवो मे से कुछ जीवो की दशा इतनी बिगड जाती है कि जो निगोद मे जाकर उत्पन्न हो जाते हैं। वहा एक शरीर मे अनन्त जीव रहते हैं । उस शरीर मे ऐसे जीव भी होते हैं, जो अभव्य तथा कृष्णपक्षी होते हैं। ऐसे जीवो के साथ एक ही शरीर में वह जीव रहता है । उनका आहार और श्वासोच्छ्वास भी एक साथ होता है । भौतिक सुख दुख समान होते हैं। इस प्रकार वह निकृष्टतम दशा मे पड़ा हुआ होने पर भी उसमे विशेषता है। एक बार के सम्यक्त्व के स्पर्श ने उसमे इतनी योग्यता तो रख ही दी कि वह शुल्कपक्षी ही रहता है । उसके सम्यक्त्व के वे संस्कार उसे निगोद से निकाल कर पुन सम्यक्त्व की ओर आकर्षित करते हैं और वह सम्यक्त्व और विरति पाकर परमपद को प्राप्त कर लेता है । ऐसा अचिन्त्य प्रभाव है सम्यक्त्व-रत्न का । इसलिए परम कृपालु गुरुदेव कहते हैं कि-"हे जीव । सम्यग्दृष्टि बन-बुज्झ, बुज्भ, बुज्झ ।"
मिथ्यात्व की भयंकरता जिस प्रकार विष की एक बूंद भी प्राण-घातक हो सकती