________________
सम्यक्त्व विमर्श
है । और तो अलग रहे, हमारी कॉन्फरन्स के नेता और 'जैन प्रकाश' स्वय जैन मान्यता के विपरीत प्रचार कर रहे हैं जैनदर्शन के लिए यह महान् विपत्ति काल है | रक्षक के रूप मे भक्षक इसमें मौजूद है । शकारूपी राक्षसी विराट रूप धारण करके जैनदर्शन को निगल जाने का प्रयत्न कर रही है । कई विद्वान कहे जानेवाले मुनि, मिथ्यात्व की झपट मे आकर सम्यक्त्व से खिसक गये । इस महान् खतरे से जो सावधान रहकर " तमेव सच्चं णीसंकं जं जिर्णोह पवेइयं " - इस प्रकार दृढ श्रद्धान रखेगे, वे ही इस दूषण से वचित रहकर सम्यक्त्व को सुरक्षित रख सकेगे ।
८०
२ कांक्षा
जिसके हृदय मे श्रद्धा की जडे मजबूत नही होती, वह सोचता रहता है कि 'यह अच्छा या वह अच्छा' । व्यक्ति विशेष श्रथवा किसी भौतिक विशेषता से प्राकर्षित होकर पर-दर्शन को अपनाने की इच्छा करना - 'काक्षा' दोष है । यह दोष भी कमजोर नही है । ढीली श्रद्धावाले लोगो के सामने जब किसी प्रजैन विशिष्ठ व्यक्ति का आदर्श उपस्थित होता है, तब वह सोचता है कि - "देखो ! श्रमुक महात्मा कितना त्यागी है । देश हित के लिए उन्होने कितने कष्ट सहे । परोपकार के लिए उन्होने अपना सारा जीवन लगा दिया। उनमे सादगी कितनी अधिक है ।' इत्यादि इस प्रकार के विचारो से वे दूसरो की ओर प्राकर्षित हो ही जाते हैं । दूसरी ओर हमारे कुछ पठित