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सम्यक्त्व विमर्श
यह तो सहज ही समझ मे आवे ऐसी बात है कि जो जैन-धर्म को आदरणीय माने ही नही, वह जैन का साधु कैसे हो सकता है ? हम अपनी कुतर्क से उसे बरबस जैन-धर्म सम्मत साधु माने, तो यह हमारी मूर्खता होगी।
गुणो की दृष्टि से देखा जाय तो भी यही बात है। विष-मिश्रित पात्र मे रखी हुई उत्तम वस्तु भी विपैली होजाती है । इसी प्रकार मिथ्यात्व रूपी विष युक्त आत्मा का चारित्र भी विषैला होता है। इसीसे तो भगवती आदि सूत्रो मे बताया गया है कि दृष्टिविष वाली मिथ्यात्वी आत्माएँ. अपनी श्रमणोचित उग्र क्रियाओ के बल से ऊपर के ग्रैवेयक तक जा सकती है, उस फुग्गे की तरह जो हवा भरी हुई होने से आकाश मे ऊँचा उड सकता है, फिर हवा निकल जाने पर उसका पतन होता है । क्रिया के बल से अवेयक के अहमेन्द्र होजाने पर भी क्रिया से प्राप्त वल खत्म हुआ कि पतन हो ही जाता है । वह मिथ्यात्व उसे कहा कहा भटकायगा-यह सिवाय सर्वज्ञ के कोन कह सकता है ? तात्पर्य यह कि जैन माधु वही है जो जिनेश्वरो की आनानसार वर्ते, जो जिनेश्वर को और उनके धर्म को नही मानता हुआ विपरीत मत रखता है, वह नमस्कार मन्त्र के पांचवे पद मे स्थान ही नही पा सकता।
वेश की उपयोगिता
शंका-पापका यह कथन ठीक है कि जैन-दर्शन उसी को साध स्वीकार करेगा, जिसमे जैनधर्म सम्मत गण हो, किंतु