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दूषण शंका
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रहेगे । इस प्रकार जीव सदेहशील बन कर सम्यक्त्व से वचित रह जाता है, या भ्रष्ट हो जाता है। .
साधओ मे शंका के बीज बोने वाले उनके गृहस्थ अध्यापक भी हैं। इस प्रकार के खतरे जैन नामधारी पडितो से अधिक हुए है। कई वर्ष पूर्व की बात है। मारवाड मे एक मनिजी ने जिक्र किया था,
' "मुझे एक ..... जैन पडित पढा रहे थे। उन्होने एक दिन जैन सूत्रो की आलोचना करते हुए कहा था कि-सूयगड़ाग में मेरु पर्वत की ऊँचाई एक लाख योजन की लिखी है, जिसमे से एक हजार योजन जमीन के भीतर और शेष ६६००० ऊपर है और वह शाश्वत है। इधर जब हम प्रत्यक्ष मे देख रहे हैं कि किसी मकान की दिवाल बनाई जाती है, तो उसकी नीव, ऊपर की दिवाल से चौथे हिस्से मे तो रखी ही जाती है, तब भी वह सौ दोसौ वर्षो मे ही गिर पडती है। फिर ऊपर की अपेक्षा सौवे हिस्से मे हो जो वस्तु जमीन में हो, वह ठहर भी नही सकती, तो शाश्वत तो हो ही कैसे सकती है ?"
जैन पडितजी ने शका का शूल विद्यार्थी मुनि के हृदय मे चभा दिया और विद्यार्थी तो विद्यार्थी ही ठहरे । गुरु पर विश्वास करना विद्यार्थी का साधारण कर्तव्य होता है और ऐसे शूल, सरलता से हृदय मे पैठ जाते हैं। सुनने के साथ मुझे भी विचार हुआ, किंतु सद्भाग्य से भुझे उसका मर्म समझ मे आ गया । मैंने मुनिजी से कहा कि-"जो वस्तु नीचे से बहुत लम्बी चौड़ी हो और ऊपर उसकी गोलाई क्रमश. कम होती