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सम्यक्त्व विमर्श
है, जो प्राप्ति के बाद थोडे ही समय मे (अन्तर्मुहुर्त मे) ही गँवा देते है । इस सम्यक्त्व वालो मे से अधिक सख्या ऐसे जीवो की होती है, जो स्थिरता के अभाव में मिथ्यात्व के झपेटे मे आ जाते है । जो स्थिरता क्षायिक सम्यक्त्व मे है, वह क्षायोपशमिक में नही है । क्षायक सम्यक्त्वी सर्वथा निर्भीक होता है। संसार की कोई भी शक्ति उस अजेय आत्मा को प्रभावित नही कर सकती। किंतु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के लिए खतरे के स्थान अनेक हैं । परिस्थिति से प्रभावित होकर मिथ्यात्व की प्राप्ति उसमे संभव हो जाती है। जिस प्रकार कमजोर और बीमारी के अंशवाले व्यक्ति पर छत रोग (ससर्ग से उत्पन्न होने वाले रोग) शीघ्र असर कर जाते हैं, उसी प्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाले जीवो पर मिथ्यात्व का असर शीघ्र हो सकता है, क्योकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी आत्मा मे दर्शन-मोहनीय कर्म के दलिक मौजूद रहते है । जिस भव्य आत्मा मे क्षयोपशम की तीव्रता अथवा तीव्रतमता होती है, वह तो मिथ्यात्व के झपेटे से-क्षायिक सम्यक्त्वी की तरह, बच जाता है। उसके वे दलिक नष्ट हो जाते है। किंतु जिनका क्षयोपशम मन्द होता है, वे आक्रमण के शिकार हो जाते हैं और मिथ्यात्व के भयंकर जाल में फंसकर दुखी हो जाते है।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीवो मे से ही दर्शन भ्रष्ट होते हैं, क्योकि इसमे हायमान परिणाम वाले अधिक होते हैं और भय के स्थान भी इसीके लिए है । औपशमिक सम्यक्त्व के लिए तो पतन का एक प्रातरिक कारण ही होता है, किंतु क्षयोप