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सम्यक्त्व विमर्श
पूछा कि - "प्रभो ! मैं भव्य हू या अभव्य... तब अपने जैसे अल्पज्ञ क्या समझ सकते हैं ? फिर भी यदि हम अपनी श्रद्धा की दृढता को देखे, विचार करे और अन्तर्निरीक्षण करे, तो मैं समझता हूं कि हम ठीक निर्णय तक पहुँच सकेगे ।
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हम सोचें कि हमने ससार मे, आत्मा के लिये हितकारी, प्रयोजनभूत एवं उपादेय ऐसे निर्ग्रन्थ प्रवचन को माना है ? संसार के समस्त वादो और शब्दादि इष्ट विषयो - भौतिक सुख सुविधाओ और अधिकारो से भी बढकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्थान दिया है ? हमारे हृदय में मजबूती के साथ यह जम गया है कि-निग्रंथ प्रवचन ही अर्थ है - " अयं अट्ठे " कूट कूट कर भरा है ? यदि हमारे हृदय से यह स्वीकारात्मक भाव उठें कि-“निग्गंथं पावयणं अट्ठे", तो समझना चाहिये कि "हम सम्यग्दृष्टि" की श्रेणी मे स्थान पाने के योग्य हैं । यह तो हुआ सामान्य अर्थ, किंतु इसमें आगे बढ कर हममें यह भी विश्वास हो कि - 'सामान्य अर्थ ही नही. परन्तु परम अर्थ ( सर्वोपरि हितकारी = उत्कृष्ट प्रयोजनभूत) भी निर्ग्रन्थ प्रवचन ही है - 'अयं परमट्ठे', तो समझ लेना चाहिये कि हम सम्यग्दृष्टि है और इसके बाद यह भी अभिप्राय दृढतापूर्वक निकले कि "सेसे अणट्ठे " - निर्ग्रन्थ प्रवचन के अतिरिक्त जितने भी भाव दुनिया मे हैं, वे सबके सब अनर्थ है, अहितकर हैं, आत्मा को परमात्म स्थिति पर पहुंचाने मे प्रयोग्य है । सभी अनर्थ एवं
हित के कारण हैं, तो अपने को सम्यग्दृष्टि समझने मे किंचित् भी शंका नही करनी चाहिये । यह बात तो स्वत के अनुभव
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