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तत्त्व श्रद्धा क्यों ?
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१ हेय - बन्ध, आस्रव, पुण्य और पाप ।
२ ज्ञेय-जीव और अजीव ।
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३ उपादेय - सवर, निर्जरा और मोक्ष । पूर्वाचार्य ने कहा है कि"हेया बंधासवपुण्णपावा, जीवाजीवाय हुंति विष्णेया । संवरणिज्जरमुक्को, तिण्णी वि एओ उवावेया ।"
हेय ज्ञेय और उपादेय का ज्ञान करना - श्रुत धर्म है, और हेय का त्यागना तथा उपादेय का स्वीकार करना - चारित्र धर्म है । इस प्रकार नव तत्त्व का ज्ञान 'धर्म तत्त्व' मे गर्भित है । षट् द्रव्य मे एक जीव है, शेष पाच जीव है । इनका समावेश नव तत्त्व में के प्रथम दो तत्त्वो मे हो जाता है । षट् स्थान की स्वीकृति भी श्रुत-धर्म मे है । इसमे पूर्णतया विश्वास के साथ स्वीकार किया जाता है कि- १ जीव है, २ जीव सदाकाल से है - शाश्वत है, अनादि अपर्यवसित है, ३ जीव कर्म का कर्त्ता है. ४ जीव कर्म का भोक्ता है, ५ जीव की मुक्ति हो सकती है और ६ मुक्ति के उपाय भी हैं।
जिनागम ( श्रुत धर्म ) यही बतलाता है । सभी तत्त्वो और समस्त द्रव्यो का श्रुत-धर्म मे समावेश है । देव, गुरु और धर्म रूप तत्त्व-त्रयी मे सभी तत्त्व आ जाते हैं । 'निग्रंथ प्रवचन' रूप श्रुत-धम, समस्त धर्मों (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, द्रव्य, गुण, पर्याय, लोक, श्रलोकादि) का मूल है । ऐसे अलौकिक निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर अटल श्रद्धा होना ही सम्यग्दृष्टि होकर जैन धर्म मे प्रवेश पाना है । श्राज हम 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन रूप जिना -