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सम्यक्त्व विमर्श
हो, उस समय अनन्तानुबंधी कषाय का उदय, और जिस समय मन्द कषाय हो उस समय क्षयोपशम । वैसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी तो एक जीवन मे हजारो बार आ जा सकती है ?
समाधान- यदि ऐसा मानोगे, तो वेयक के अहमिन्द्र में-जो मिथ्यादृष्टि भी हैं, मन्द कषाय के कारण अनन्तानबन्धी कषाय से रहित ही मानना पडेगा और असोच्चा केवली होने के पूर्व उन मिथ्यादृष्टि तापसो को (-जिनकी कषाये बहत ही उपशान्त थी और जो विषय भोगादि से रहित तथा विभगज्ञानी थे) सम्यग्दृष्टि मानना पडेगा । तथा उन इन्द्रो को जो पल्योपम और सागरोपम तक राग-रग, नाटक और भोगविलास मे फंसे रहते हैं-मिथ्यादृष्टि मानना पडेगा ? किंतु ऐसा मानना सगत नही होगा । अनन्तानुवन्धी का अर्थ, प्रज्ञापना सूत्र के 'कषाय' नामक १४ वे पद की टीका मे 'सम्यग्दर्शन गण की विघातक' किया है और पद २३ मे 'अनन्त जन्म का अनुबन्ध कराने वाली' किया है । इसका दूसरा नाम 'संयोजना' भी बताया है, जिसका अर्थ है-अनन्त जन्म मरण में जोड़ने वाली।' तात्पर्य सब एक ही है ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का वमन होने के बाद अंतर्मुहुर्त मे ही पुनर्ग्रहण हो सकता है, तथा एक जीवन मे अधिक से अधिक ६००० बार आ जा सकती है-यह सही है । और किसी-किसी के लगातार ६६ सागरोपम से भी अधिक काल तक रह सकती है । परतु इस आने जाने की पहिचान छद्मस्थ से होना सम्भव नही है और न इसके उपरोक्त लक्षण ही निश्चित है।