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रेवती-दान-समालोचना मांसक उसके घर मौजूद है। वह प्रासुक है, उसे ले आओ। जिससेजिस औषधि से-मेरा रोग जल्दी दूर हो जाय ।
इन दोनों पद्यों का भावार्थ आगे स्पष्ट हो जायगा । यहाँ तो शब्दार्थ ही कहा है। मूल पाठ इस प्रकार है-"दूसरा जो पर्युषित मार्जार कृतक कुक्कुटमांसक है उसे ले आओ । वही काम का है" ॥१॥
आज्ञा होने पर जो किया सो कहते हैं
सिंह मुनि ने वैसा ही किया। रेवती का दिया हुआ शुद्ध पदार्य वह लाये और उससे रोग की शान्ति हुई ॥ १२ ॥
सिंह अनगार प्रसन्न होकर ईर्या समिति से रेवती के घर गए। रेवती ने विनय-भक्ति करने के बाद मुनि से पूछा-"महानुभाव' ! अपने आगमन का प्रयोजन कहिए।" मुनि ने वह सब वृत्तान्त कहा जो श्रीमान् महावीर ने कहा था। गाथापत्नीने आश्चर्य के साथ पूछा-"मेरी यह गुप्त बात आपने कैसे जानली ?" मुनि ने कहा-"मैं स्वयं नहीं जानता किन्तु अपने धर्माचार्य के बताने से मैं जानता हूँ।" ।
वह प्रसन्न होकर भोजनशाला में चली गई।
मूल पाठ यह है-“वह भोजन गृह की ओर गई । पात्र को खोला। पात्र खोलकर सिंह अनगार की भोर आई और वह सब सिंह भनगार के पात्र में रख दिया।"
पाठकों को इस पाठ से विदित होगा कि रेवती ने जो कुछ दिया, वह भाहार नहीं था वरन् औषधि थी। यदि भोजन होता तो बन्द वर्तन में न रखा होता। बल्कि बन्द न किये हुए-ढंके हुए वतन में होता । परन्तु यहाँ "पत्तगं मोइए (पात्रक मोचयति ) ऐसा पाठ है। मोचन करना अर्थात् खोलना । बंधे हुए को ही खोला जाता हैन कि ढके हुए को । टीकाकार ने इसका, पिरका विशेष का मोचनः।।
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