Book Title: Revati Dan Samalochna
Author(s): Ratnachandra Maharaj
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Vir Mandal

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Page 52
________________ रेवती-दान-समालोचना ही नहीं सकती। इस प्रकार मांस अर्थ करने से वाक्य का ठीक ठीक अर्थ ही नहीं लगता। अतएव एक भापत्ति को दूर करने चले तो दूसरी आपत्ति आ गई ! यह तो वही बात हुई कि इधर कुवा उधर खाई ॥२२-२३ लाक्षणिक अर्थ अयुक्त क्यों है ?-- .. मार्जार का जूठा अन्न आदि आज कल भी दूषित माना जाता है। उसे शिष्ट पुरुष छूते भी नहीं है, फिर खाने की तो बात ही क्या है ? ॥ २४ ॥ ___ वर्तमान काल में भी जिस अन्न या दूध आदि खाद्य पदार्थ में मार्जार (विलाव ) मुंह डाल देता है उसे नीच वर्ण के लोग भी अखाद्य और दूषित मानते हैं। शिष्ट जन तो उसका स्पर्श भी नहीं करते-इस प्रकार भक्षण का स्वयं ही त्याग हो जाता है ॥ २४ ॥ 'शरीर' शब्द का प्रयोग भी मांसार्थ का बाधक है पंख आदि समस्त अंगों का समुदाय शरीर कहलाता है। यह शरीर भक्षण नहीं किया जा सकता । यहाँ पर 'शरीर' शब्द का प्रयोग किया गया है अतः मांसार्थ करने में इससे बाधा आती है ॥ २५ ॥ ___ 'दुवे कवोयसरीरा' यहाँ शरीर शब्द का मतलब यदि मांस होता तो फिर 'कवोयमंसा' ऐसा प्रयोग होना चाहिए था। किन्तु ऐसा पाठ होता तो भी 'दुवे' शब्द वृथा हो जाता, क्योंकि 'मांस' के लिए 'दो' विशेषण नहीं लगाया जा सकता। यदि कोई यह कहे कि 'दो' विशेषण मांस का नहीं किन्तु कपोत का है, सो ठीक नहीं। कारण यह है कि यहाँ 'कपोतशरीर शब्द समासयुक्त है और समास-युक्त होने से शरीर के साथ ही उसका ('दो' विशेषण का) अन्वय घटता है, कपोत शब्द के साथ नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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