Book Title: Revati Dan Samalochna
Author(s): Ratnachandra Maharaj
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Vir Mandal

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Page 102
________________ [ ८७ ] वा दूसरे की भूल दर्शाने वाले को चाहिये कि, समीक्षा या समालोचना करते समय लेखक के अभिप्राय व उस सम्प्रदाय की परिभाषा से पूरी पूरी जानकारी प्राप्त करे तथा पक्षपात रहित न्याय दृष्टि रक्खे; तब उसमें से एक दूसरे के लिये जानने योग्य कुछ मिल सकता है । अन्यथा नहीं । यदि पंडितजी रेवतीदान समालोचना करने के पहिले श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सूत्रों का पूरे तौर पर अवलोकन कर लेते तो जो आशंकाएं पंडितजी ने उठाई हैं, उनका अपने आप समाधान हो जाता । पंडितजी ने प्रकृत निबंध के विषय में जो अपनी सम्मति तथा उच्च अभिप्राय प्रकट करते हुये ध्येय की सफलता में ९ त्रुटियां लेखवद्ध की हैं। उनमें से एक से पांच नम्बर तक तो ऐसी त्रुटियाँ हैं जो इस निबंध से कोई सम्बन्ध न रखती हुई केवल पारस्परिक सांप्रदायिक विद्वेषवर्द्धन के लिये ही हो सकती हैं और जिन पर पूर्वाचार्यों के बहुत कुछ लिखने पर भी आज तक कोई फल नहीं हुआ । अर्थात् इन विवादास्पद विषयों पर पूर्वाचार्य बहुत कुछ लिख गये हैं तो भी अपने २ मन्तव्यों को छोड़ने के लिये कोई भी तय्यार नहीं ! अतः इन सब का उत्तर ( तय्यार होते हुये भी ) लिखकर व्यर्थ समय का दुरुपयोग करना श्रेष्ठ प्रतीत नहीं होता । यदि पंडितजी आग्रह छोड़ सप्रमाण सिद्ध सत्य के स्वीकार करने में अपनी मनोवृत्ति प्रकट करते हुए आग्रह करेंगे तो हम उनका भी उत्तर देने के लिये प्रस्तुत होंगे । व्यर्थ दोनों सम्प्रदायों के बोच में वैमनस्य का वातावरण पैदा करना हमारा ध्येय नहीं है । इसलिये इस लेख में उन्हीं ६-७ और ८ वें प्रश्न जिनका संबंध " रेवतीदान समालोचना" नाम के निबन्ध से है उन्हीं का उत्तर क्रमशः दिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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