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रेवतीदान समालोचना
की
प्रत्यालोचना (ले०-शतावधानी पंडित मुनिश्री रत्नचन्द्रजी महाराज)
[ जैन प्रकाश के उत्थान महावीरांक में शतावधानी पं०. मुनिश्री रत्नचन्दजी म. ने रेवतीदान समालोचना नामक निबंध संस्कृत में प्रकाशित कराया था। उसकी आलोचना पं. अजितकुमारजी ने जैन मित्र में की थी। जिसका यह उत्तर है। अच्छा होता कि यह उत्तर जैनमित्र में ही छपता जिससे जैनमित्र के पाठक दोनों तरफ की बातों को समझ सकते । परन्तु खेद है कि, यह लेख जेनमित्र के पास भेजा भी गया, लेकिन जैनमित्र ने इसके छापने की उदारता नहीं दिखलाई। जेनमिंत्र को अपनी इस जिम्मेदारीका ख्याल अवश्य रखना था। खेर! इससे तो मुनिश्री के लेखका महत्वही बढता है। यह लेख और पत्रों में भी प्रकाशित हुआ है परन्तु इसका मूल लेख जैन प्रकाश में ही छपा था इस लिये यह लेख भी यहां दिया जाता है । सं. ] ___दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर से प्रकाशित होने वाले "जैन मित्र" नाम के साप्ताहिक पत्र में ता० १ अगस्त वर्ष १६ के अंक ४१ में दिगम्बर सम्प्रदाय के पण्डित श्री अजितकुमारजी शास्त्री ने "रेवतीदान समालोचना" नामक संस्कृत के निबन्ध की समालोचना करते हुये प्रकृत निबंध के उद्देश्य की मर्यादा को उल्लंघन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com