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रेवती-दान-समालोचना
www.mmmmmmmmmmmmmm दूसरी बात यह है कि 'शरोर' का अर्थ मांस नहीं हो सकता । मांस, शरीर में रहने वाली एक वस्तु है, शरीर नहीं। शरीर में मांस के अतिरिक्त रुधिर आदि अन्य पदार्थों का भी समावेश होता है। शरीर अवयवी है, मांस अवयव है। अवयवी, अनेक अवयों का समुदाय होता है। इसीलिए ऊपर कहा है कि पत्र और ( आदि शब्द से ) पैर चोंच आदि अंगों का समूह शरीर कहलाता है और पख आदि के साथ पक्षी का शरीर न तो कोई कभी खगता है न पकाता है। अर्थात् मांस हो खाया जाता है, पंख वगैरह नहीं। अतएव शरीर शब्द का और दुवे शब्द का प्रयोग ही यहाँ मांसार्थ का बाधक है-साधक नहीं। शरीर शब्द का प्रयोग सार्थक किस प्रकार है, यह बात आगे दिखावेंगे ॥२५॥
प्रकृति परीक्षा, रोग की चिकित्सा का मूल है
विद्वान् लोग पहले औषधि और रोग को प्रकृति की परीक्षा करते हैं। इनकी परीक्षा न करने से रोग घटने के बदले बढ़ जाता है ॥ २६ ॥
विद्वान् वैद्य सर्व प्रथम रोग की चिकित्सा करते हैं। रोग की प्रकृति क्या है, मौसिम कौन सा है, रोगी पुरुष का आचरण कैसा है, इसकी प्रकृति कैसी है इन बातों पर पहले विचार करके तथा किस प्रकृति वाली औषध का सेवन करने से आरोग्य बढ़ेगा यह सोच कर ही वैद्य औषध देते हैं। तभी रोग का नाश होता है प्रकृति की परीक्षा किये विना ही यदि दवा दे दी जाय तो रोग का नाश होना दर किनार रहा हानि की जगह उलटी वृद्धि ही होती है। यह एक सामान्य नियम है । महावीर स्वामी ने इसी नियम के अनुसार ही रोग के स्वभाव से विपरीत स्वभाव
वाली औषधि लाने के लिए भाज्ञा दी थी ॥ २६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com