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रेवती-दान-समालोचना
यदि निश्चित करके जैसे-तैसे भगवती आदि शास्त्रों को भी मांस-प्रतिपादक कह कर दूषित करते हैं ॥ १४ ॥
वास्तव में वे स्वयं दोषी हैं और अपने ही दोषों का दूसरों पर श्रारोपण करते हैं यही दिखलाते हैं
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यह प्रलाप विपरीत बुद्धि का फल है, सत् असत् की परीक्षा का नहीं। क्योंकि इस प्रकरण में प्राणी अर्थ किसी भी प्रकार नहीं घट सकता ।। १५ ।।
शास्त्र को दूषित करने रूप यह प्रलाप अपनी दुष्टता को प्रकट करता है । सत्य-असत्य की परीक्षा से इसका कुछ सम्बन्ध नहीं है । यह तो मिथ्या बुद्धि का ही परिणाम है । मिथ्यादृष्टि, सापेक्ष वचनों के अर्थ को विचार पूर्वक चिन्तन नहीं करता । यदि सत्य-असत्य की परीक्षा करे तो संगत अर्थ को छोड़ कर असंगत अर्थ को क्यों स्वीकार करे ? विवेक-बुद्धि वाले को तो प्रकरण आदि का विचार करना चाहिए | कौन देता है ? कौन लेता है ? किस लिए लेता है ? लेने वाले का जीवन कैसा है ? इन सब बातों पर नज़र रखते हुए ही अर्थ करना चाहिए । सम्यग्दृष्टि से या शास्त्र दृष्टि से विचार करने पर इस प्रसंग में मांजर आदि शब्दों का प्राणी या प्राणी का मांस आदि अर्थ नहीं घटता है ॥ १५ ॥
न घटने का कारण
जिनेश्वर भगवान् ने स्थानांग नरकायुष्य का कारण स्पष्ट रूप से
आदि सूत्रों में मांसाहार को बताया है ॥ १६ ॥
प्रासुक- एषणीय भोजन करने वाले मुनियों को दो ही गतियाँ प्राप्त हो सकती हैं-मोक्ष अथवा वैमानिक देवगति । भगवान् महावीर स्वामी को तो मोक्ष ही प्राप्त हुआ क्योंकि वे तीर्थंकर थे। लेकिन मांसा
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