Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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३१२
निशस्यता और निदान शल्यका भाराष ३०१ आठ गुणों के अर्थ में अध्याति अतिव्याप्ति मिध्यात्य संसारफा जनक, चारित्रमोह
और उनका परिहार मोक्षमार्गका विरोधी है।
३०३
तात्पर्य
मादृष्टि और शिनारिके आन गुणों मम्यक्त्वसे चारित्रकी विशेषता
३०
गति स्थिति आदि मे अन्तर पारिन धारण करनेकी आवश्यकता
३०४ दीप्ति और शोभामें अन्सरका कारण
३६० मोही मुनिसे निर्मोह गृहस्थकी भेष्ठता का
भायुका अपवर्तन भागमसम्मत है ३६१ कारण कारिका नं० ३४
३०५ जिनभक्तिका फल
२६२
सम्यग्दर्शनका फल परमसाबाम और विजया प्रयोजन
जाति कारिका नं. ३८
३६३ रामों का सा- वि० अर्व
40
शब्दों का सा.वि. बर्थ । सारपर्य
निधियोंकी संख्या जासिमेनकत है। পাল সীৰ গিৰ্কি বিঘ
चक्ररतका परिचय ।
३६५ विशेष विचार
तात्पर्य। सम्यग्दर्शनका अन्तरंग नै यस प्रधान फल
पौरह रत्नोंकी ठरह मंत्रीका उल्लेख क्यों कारिका नं० ३५
नहीं इसका उत्तर । प्रयोजन
परमसाबाम्मका आशय ।
३७१ सम्बोंका सा०वि० अर्थ
परमाईन्त्य-कारिकानं. ३ । अबदायुष्क और बदायुष्क सम्यष्टिमें मसर ३१०
प्रयोजन । तात्पर्य
भागमके उपचा वतृत्वपर विचार
७६ सम्यग्दर्शन बन्धका कारण नही है
शब्दोंका सा. वि. पर्य। ४१ कर्मप्रकृतिमाको बन्धव्युधितिका
तात्पर्य । आठ मेवों में भन्ताव
३२५ सम्यग्दृष्टि और मिध्यारष्टिको प्रवृत्ति अन्तर ३२०
तीर्थकरस्व, कारण, मे, अतिशय बापि। ६५२ नरकादिकी कारणभूत किया
सम्पर्शनका अलौकिक फल, मन्तिम कारिका ने० ३६
२५७ परमस्थान कारिका नं.४० ।
एक प्रयोजन सात परमस्थान ३३४ शब्दों का सा.वि. मये।
कम सम्यग्दृष्टिफे संवर और निर्जरा शपथ .
BAL शराम्पोंका सा०वि० अर्ण ३ आभ्युदयिक को विषयमें विदोष कपन ।
४०३ खात्पर्ण
३४२ उपसंहार , कारिका नं. ४१ । गुणों के प्रकार और सम्यग्दृष्टि तथा
प्रयोजन ओर ज्ञापनसिप धाशय । मिथ्याष्टि के ओज माविमें अन्तर ३४३ शब्दोंका सा. वि. अर्थ।।
४०५ इस कोरिकामें प्रथम तीन परभस्थानोंके कवल "" के पार पोंमें यहमिन्यापक का आशय
३४. मर्थ की मुरूपता । समातिस्व निर्णय
२४. "जिनकि "पार पर्व। सरागसम्यक्रवका मोशमार्गोपयोगी का सापर्य।
४०० इन्द्रपदका लाभकारिका नं.३७ २४६ सुरेन्द्रता,चक्रवर्तिला, तीर्थकरत्वा प्रकार प्रयोजन
३२५
३२९
BE६
२२
प्रयोजन ।
सात्पर्य।