Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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र अनायतन।
५०० घटान्त पूर्वक पुण्य और सम्यग्दर्शन के अनायतन और मूढतामें अस्तर २०६ फल में अन्नर कारिकान नानायकी भी समुद्र नदियों के
सम्पदर्शन के फीकी गौण मुस्वता बाल की पवित्रता मान्य है।
२०३ शब्दों का अर्ध देषभूपता । कारिका नं०१३
२०४ तात्पर्य शासनदेव पूजा पर विचार २०५ सम्यग्दर्शनस निर्माचनीय संपत्ति
२६१ भाचार्यों और आशाधरजी का
रुम्यादष्टि किस को कैसे विनय करे अभिमत तथा अनब्ध."श्रावणापि
कारिका नं०
२६२ पितरी "मादिका आशय
२१० प्रयोजन, सामान्य विशेष मथ पापारमुढता | फारका.. २४ शम्कका साविक अर्थ २१५ विनयक भेन और मोक्षाश्रम विनर ।
०६५ तात्पर्य।
२१५ सम्यग्दर्शन के अध्याग विशेषण और भयादिकका ओ मुगुरु नहीं है वह गुरु है,यह
२२० सम्बन्ध। पात नही है
शुद्धटष्टयः का मूढना और माल सबन्ध । २६७ सुगुरु कुगुरुकी प्रत्पनीकता।
२२१ चार लौकिक विनय और भय शाहकोम से अस्मय विशषणका रपष्टीकरण कारिका नं०२५ २२२
सात
२६७ प्रयोजन
२२२ हेनुपद , कर्मपद , और क्रिया पदः विधारा २६७ शब्दो का सा०वि० अर्ब
२२४ भय आदिका मंत्र जाति को भार शाम्मद पर विचार
२२५ चारित्र में सम्बन्ध राब्दोंका अर्थ
२२६ कारिका नं.३१ तात्पर्य
२२६ रत्नत्रयरूप धर्म में मौण मुख्य और स्मयके स्वामित्व पर विचार
२३० समानता के प्रश्न का उत्तर पदमाहित पेष्टाले हानि। कारिका । २ शब्दों का सागि भई
२१ प्रयोजन
२३१ तात्पर्य सामान्य विशेष अर्थ
२३२ इस पथ की साहित्यिक विशेषता इस कारिका हेतु और अनुमान अलंकार सवा २३३ पद्य वर्णन के सारभूत सीन विषय बह साध्य हेतु पंचनका प्रयोग .
कारिका न० ३२ सासर्य
१३ शंका और समाधान सम्यग्दर्शनका साय दोष सब समझा जाप २३४ निसर्ग अधिगमकी हेतुतापर विचार आक्षेपालंकारद्वारा स्मयके करने न करनेका कारवाक प्रयोजनको स्पष्ट करनेवाला अन्तर
प्रश्न और उधर और दोषका निदान कारिका नं २७
२८३
शब्दोंका मा०वि०मर्थ सामान्य विशेष शम्दार्थ
२३॥ तात्पर्य जाटानुप्रास और आक्षेपालकारकी संगति ४५ सम्पादनादिकी उपासनावि पांच पांच भौतिक ओर आभ्वा० सम्पत्तियों में बातकाल तर २४२ अवस्थाए सम्यग्दर्शन की अन्दरंग महिमा कारिका नं. २४५ सम्यग्दशन की शुद्धि सामान्य और मान चतुरनुयोग को रष्टि से स्मय की व्याख्या २४६ चारित्रकी शुद्धि विशेष है
२६९ शब्दों का अर्थ २४७ राम्दोका अर्थ
२६४ जलकारका समूश्चम क्षात्पर्य,
२६६
sur
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