Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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म्यादाट
राजै.शा.
॥३॥
भगवतः केवलज्ञानलक्षणविशिष्टज्ञानाऽनन्त्यप्रतिपादनाजज्ञानाऽतिशयः । अतीतदोपमित्यनेनाऽष्टादशदोषV संक्षयाऽभिधानादपायापगमाऽतिशयः । अवाध्यसिद्धान्तमित्यनेन कुतीर्थिकोपन्यस्तकुहेतुसमूहाऽशक्यबाधस्या
द्वादरूपसिद्धान्तप्रणयनभणनाद्वचनाऽतिशयः । अमर्त्यपूज्यमित्यनेनाऽकृत्रिमभक्तिभरनिर्भरसुराऽसुरनिकायनायकनिर्मितमहापातिहार्यसपर्यापरिज्ञापनात्पूजाऽतिशयः॥
इस श्लोकके पूर्वार्धमें आचार्यने विशेषणों द्वारा श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्रके चार मूल अतिशयोंका कथन किया है। उनमें 'अनन्त विज्ञान' यह जो विशेषण है इससे भगवान्के केवलज्ञानरूप लक्षणके धारक ज्ञानकी अनन्तता कही गई है, इस कारण पहिला ज्ञानातिशय कहा गया । और 'अतीतदोप' इस विशेषणसे अठारह दोपोंका नाश कहे जानेसे भगवान्के दूसरा अपायापगम
नामक अतिशय कहा गया ॥१॥ तथा 'अबाध्यसिद्धान्त ' इस विशेषण द्वारा अन्य कुमतावलम्बियोंकरके दिये हुए ॐ जो बुरे हेतु उनके समूहसे वाधाको प्राप्त नहीं हो सकनेवाले स्याद्वादस्वरूप आगमको भगवानने रचा है इस प्रकारके अर्थको M कहनेसे तीसरा वचनातिशय सूचित किया ॥ ३॥ एवं 'अमर्त्यपूज्य ' इस विशेषणसे सच्ची भक्तिके भारसे निर्भर अर्थात् । * अन्तरगसे उत्पन्न हुई जो भक्ति है उसके बोझेसे दबे हुए (नीचे हुए ऐसे जो देव तथा असुरोंके समूह उनके जो सामी
(इन्द्र) उन करके की हुई जो महाप्रातिहार्य पूजा उसको जनानेसे चोथे पूजातिशयको कहा ॥ ४ ॥ ___अत्राह परः। अनन्तविज्ञानमित्येतावदेवास्तु नाऽतीतदोषमिति गतार्थत्वात् । दोषाऽत्ययं विनाऽनन्तविज्ञानत्वस्यानुपपत्तेः। अत्रोच्यते-कुनयमताऽनुसारिपरिकल्पिताप्तव्यवच्छेदार्थमिदम् । तथा चाहुराजीविकनयानुसारिणः-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः।" इति। तन्नूनं न ते अतीतदोपाः । कथमन्यथा तेषां तीर्थनिकारदर्शनेऽपि भवावतारः॥
॥३॥
१ अन्तरायदानलाभवीर्यभोगोपभोगगा.। हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञान निद्रा चाविरतिस्तथा । y रागो द्वेषश्च नो दोषानेपामष्टादशाध्यमी॥२॥ इत्यष्टादश दोषा.। २आजीविको बौद्धः।