Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 14
________________ याद्वादमं. ॥२॥ करविरचितद्वात्रिंशद्वात्रिंशिकानुसारि श्रीवर्द्धमान जिन स्तुतिरूपमयोगव्यवच्छेदाऽन्ययोगव्यवच्छेदाऽभिधानं द्वात्रिंशिकाद्वितयं विद्वज्जनमनस्तत्त्वाऽवबोधनिबन्धनं विदधे । तत्र च प्रथमद्वात्रिंशिकायाः सुखोन्नेयत्वाद्व्याख्यानमुपेक्ष्य द्वितीयस्यास्तस्या निःशेषदुर्वादिपरिषदधिक्षेपदक्षायाः कतिपयपदार्थविवरणकरणेन स्वस्मृतिबीजप्रबोधविधिर्विधीयते । तस्याश्चेदमादिकाव्यम् ॥ अवतरणिका । इस लोकमें भयंकर पचमकालरूपी रात्रिको दूर करनेके लिये सूर्य समान तथा स्वर्गसे पृथ्वीतलमें उतर कर आई हुई जो अमृतकी नहर उस जैसा जो उपदेशोंका समूह उसके द्वारा परम जैनी किया हुआ जो श्रीकुमारपाल महाराज उसकरके प्रवर्त्ताया हुआ जो अभयदान नामक जीवनौषधि उससे जीवनको प्राप्त हुए जो बहुतसे जीव उन करके दिये हुए जो आशीर्वाद उनके प्रभावसे कल्पकालपर्यन्त रहने वाला है निर्मल यशरूपी शरीर जिनका ऐसे, और दोषरहित जो व्याकरण, आगम, साहित्य और तर्क ( न्याय ) नामक चार विद्या है, उनको रचनेके लिये ब्रह्माके समान ऐसे, श्रीहेमचन्द्रजी सूरीनें जगत्प्रसिद्ध श्रीसिद्धसेनजी दिवाकरकी बनाई हुई ' द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ' का अनुसरण करके श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्रकी स्तुतिरूप और ज्ञानी जनोंके मनमें तत्त्वज्ञान उत्पन्न करनेको कारणभूत ऐसे अयोगव्यवच्छेद तथा अन्ययोगव्यवच्छेद नाम द्वात्रिंशिकायुगलको किया । भावार्थ - 'श्री जिनेन्द्र यथार्थवादी ही है' इस प्रकार जहांपर विशेषणके साथ एव ( ही ) पद लगाया जावे वह तो अयोगव्यवच्छेद है, और ' श्रीजिनेन्द्र ही यथार्थवादी है' इस प्रकारसे जहां विशेष्यके साथ ' एव ' लगाया जावे वह अन्ययोगव्यवच्छेद है । उनमें पहली जो अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका है वह सुखसे समझमें आनेवाली है, इसलिये उसके व्याख्यानको उपेक्षित करके अर्थात् न करके, समस्त एकान्तवादियोंकी सभाका खंडन करनेमें समर्थ जो दूसरी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका है, उसके कितने ही पदार्थोंका विस्तारसे वर्णन करके मै ( मल्लिषेण ) मेरा जो स्मृति (धारणा) रूप चीज है उसके उदयका विधान करता हूं । और उस अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकास्तोत्रका प्रथम काव्य यह है— १ विशेषणसङ्गतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधक' यथा— शङ्ग पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदस्य लक्षण चोद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्र तियोगित्वम् । २ विशेष्य सङ्गतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधक. यथा पार्थ एव धनुर्धर । अन्ययोगव्यवच्छेदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः । रा. जै.शा. ॥ २ ॥

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